Wednesday 21 January 2015

मोह माया एवं इक्षा- Moh maya aur iksha

मोह माया एवं इक्षा तो साधना पथ में भी होता है । साधक की महामाया के दर्शन की वार्ता करने की सम्मुख मात्रि प्रेम पाने की होती है । पारलोकिक शक्तियों को देखने एवं यथार्थ जानने की इक्षा होती है । यह भी तो मोह है । महामाया के माया में कार्य सिद्धि की इक्षा भी तो माया का अंश है ।
पर एक सच्चा साधक बिना इक्षा किये अग्रसर होता है । उच्च कोटि के साधक बिना किसी इक्षा के साधना करते हैं । उनकी साधना करने की इक्षा ऐसी होती है जैसे एक तैराक जिसे बस तैरना अच्छा लगता है । तट पर आकर तैराकी को समाप्त करना नहीं । इस साधना रुपी नदी में डूबते रहें तैरते रहें । सब सुलभ हो जाता है ।
महामाया के दर्शन की इक्षा होती है फिर भी इक्षा को प्रकट किये बिना साधना करते हैं । इस साधना रुपी पथ पर बस चलते रहते हैं । इस पथ पर भ्रमित करने तथा भटकाने हेतु महामाया सिद्धियाँ प्रदान करती रहती है । सिद्ध साधक सिद्धि होने के वावजूद उस सिद्धि का भान नहीं रखते । अघोर सिद्धियों को अपने मुंड में जगह दे देते हैं । अपने पास रखने या उन सिद्धियों से कार्य की अभिलाषा नहीं रखते । शिष्यों तथा निकटतम व्यक्तियों का कल्याण भी करते हैं पर प्रसिद्धि या सेवा की इक्षा नहीं रखते हैं । जब सिद्धि या शक्तियों से कार्य हेतु इक्षा होने लगे तो उसी में रमने की इक्षा होने लगती है ।
अतः जो साधक मोह करके भी मोह ना करें । दर्शन की अभिलाषा हो पर सब माँ की इक्षा और प्रारब्ध पर छोड़ दें । जब माया के संग होकर भी माया का तनिक भान ना हो । महामाया प्रसन्न भाव में शिशु रूप में गोद में उठा कर प्रेम करती है ।
अलख आदेश ।।।

http://aadeshnathji.com/moh-iksha/

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