Wednesday 21 January 2015

अघोर पंथ- Aghor panth

अघोर पंथ की परिभाषा ही घोर से घोरतर और घोरतर होकर भी अघोर ।।।
अघोर पंथ की साधना करने एवं दीक्षा हेतु एक साधक को अनेक बातों का ध्यान रखना होता है ।
पर मुख्यतः एक साधक के अंदर निम्लिखित गुणों का होना आवश्यक है ।
1. साधक को निर्भय और निडर होना होता है । अघोर पंथ की साधना में विपरीत अनुभुतियों का भण्डार है । एक अघोर साधक वीर मार्गी साधना में अग्रसर होता है । अतः इस साधना में उग्र परीक्षा होती है । साधक के समक्ष अति दुष्कर परिस्थिति का भान होने लगता है । साधना स्थल पर विभिन्न शक्तियों का आगमन होता है । अगर साधक निडर ना हो और प्रेत या पिशाच के द्वारा निकाली गयी आवाजों या दृश्य से भाग खड़ा हो तो नकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।
2. साधक सम भाव से रहे । अघोर साधक को कष्ट दुःख दर्द प्रसन्नता एवं सुख में सम भाव से रहना आना चाहिए । अक्सर देखा जताभई कि एक साधक जब परिस्थितियां विपरीत हो तब ज्यादा साधना करते हैं और जब प्रसन्न तो साधना भूल जाते हैं । साधना हर समय चलते रहना चाहिए । दुःख हुआ तो क्रोध करने लगे प्रसन्न हुए तो सबको आशीर्वाद देने लगे । जब सारी परिस्थिति में सम भाव से रहें तो साधना में सफलता मिलती है । भाव इष्ट एवं गुरु का होना चाहिए । उस भाव में भी सम रहने का प्रयास होना चाहिए ।
3. घृणा इर्ष्या द्वेष मोह माया आसक्ति एवं क्रोध से यथा शक्ति दूर होना चाहिए । जब किसी की सफलता या उपलब्धि हो तो इर्ष्या का या द्वेष का भाव उत्पन्न नहीं होना चाहिए । किसी भी वस्तु व्यक्ति या जीव से किसी भी रूप में घृणा नहीं करनी चाहिए । मल मूत्र गन्दगी से साधना में विघ्न होगा यह बस मन के भाव हैं । इन सब भाव को त्यागना होता है ।
4. परम सत्ता का दर्शन हर जीव वस्तु एवं पदार्थ में होना चाहिए । यह संसार महामाया का बनाया हुआ है । हर जीव वस्तु एवं पदार्थ में महामाया के अंश का दर्शन होना चाहिए ।
5. ज्ञान गंगा को समेटने की शक्ति । ज्ञान गंगा कही से से भी प्रवाहित हो सकती है । जहा से ज्ञान मिले ग्रहण करने की क्षमता पूर्ण रुपेन विकसित होनी चाहिए । कभी एक छोटा बालक या बालिका अति गुह्य बात कह जाते हैं । जाने अनजाने में कोई व्यक्ति कुछ बता जाता है । इन सभी बातों को ग्रहण करने की क्षमता होनी चाहिए ।
6. दंभ स्व प्रतिष्ठा से दूर होना चाहिए । मनुष्य शक्तियों के भाव में स्व प्रतिष्ठा पाने का भाव रखते हैं । जो मिला है महामाया का प्रसाद है । मेरा कुछ नहीं । मेरे पास कुछ नहीं । इस भाव के संग जीवन सफल होता है । अन्यथा ईवा और प्रतिष्ठा का भाव या आकांक्षा रखने से क्रोध और इर्ष्या उत्पन्न होती है ।
7. अंतत गुरु के प्रति श्रद्धा का भाव हमेशा होना चाहिए । गुरु के वाक्य सर्वोपरि होने का भाव होना चाहिए । गुरु से चर्चा अवश्य होनी चाहिए । अपना तथ्य सामने रख कर गुरु से वार्ता बिना अश्रद्धा के करनी चाहिए । गुरु ही सूत्र धार हैं । गुरु ही परम परमात्मा हैं । गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान को आत्मसात करना चाहिए ।
इन सारे मुख्य रुपी आचरण से पात्रता में वृद्धि होती है । और गुरु कृपा एवं इष्ट प्राप्ति होती है ।
अलख आदेश ।।।

http://aadeshnathji.com/aghor-panth3/

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