Thursday 29 January 2015

अघोर समागम- Aghor samagam


ॐ सत नमो आदेश श्रीनाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश

अघोर समागम

अघोर समागम का मुख्य उद्देश्य अघोर और तंत्र को लेकर फैली भ्रांतियों को दूर करने का है । आदि काल से अघोर गुप्त रहा है । अघोर साधक शमशान या किसी गुफा में अपना जीवन व्यतीत करते थे । अघोर के दर्शन काफी दुर्लभ थे । जिसके पीछे शमशान में प्रेतों का भय और अघोरी साधुओं का रुखा स्वभाव मुख्य था । अघोर पंथ के साधको का मस्त मलंग रहना और बिना भय और सम्मान की चाह रख कर साधना अघोर को भयभीत बनता चला गया । जिसका फायदा नाम धारी अघोरी और तथाकथित तांत्रिकों ने उठाया ।
अघोर सहज और सरल है । अघोर में लोभ मोह क्षोभ घृणा और आसक्ति का कोई स्थान नहीं है । अघोर अपने में मस्त मलंग रहता है । उसे न दुनिया की खबर होती है ना ही दुनियादारी की । ऐसे में नामधारी बाबाओ ने अघोर के द्वारा किये गए प्रयोगो को और उनके स्वाभाव को दूसरे रूप में समाज के सामने प्रस्तुत कर भयभीत करना शुरू कर दिया ।
अपशब्द बोलना, मदिरा पान करके धुत्त रहना , व्यभिचार करना, सांसारिक को विभिन्न रूप से डराना की अगर मेरी बात नहीं माने तो ये कर दूंगा वो कर दूंगा ।
ऐसे में सांसारिक इष्ट से दूर होता चला गया और भयभीत होने लगा । इष्ट से प्रेम की जगह भय आ गया । ऐसे में फल स्वरुप बाबाओ का धंधा बढ़ चढ़ गया और अघोर और तंत्र के प्रति अनेक भ्रांतियां बन गयी ।
ऐसा वातावरण बन गया की एक अघोर साधक बस व्यभिचार करता है और अगर भड़क गया तो सांसारिक का जीवन बर्बाद कर देगा ।
इन सब भ्रांतियों को मुख्य रूप से समाप्त करने हेतु एवं सही अघोर के दर्शन करने हेतु श्री गुरु आदेशनाथ जी ने अघोर मंच एवं अघोर समागम की शुरुआत की है । इस मंच का उद्देश्य शिष्य बनाना या धन कमाना नहीं है अपितु अघोर का वास्तविक स्वरुप क्या है यह दर्शाना है । जन साधारण से दूर अति उग्र साधना पद्धिति जिसमे बस प्रेम ही प्रेम है इष्ट के लिए उसे सबके सामने लाना है ।
पिछले दो सालो के अथक प्रयास से मंच से जुड़े साधको एवं संसारिको में अघोर के प्रति भय कम हुआ है ।
इस प्रयास से साधको को सही मार्ग दर्शन मिले और अघोर पंथ के प्रति भय घृणा एवं भ्रांतियों का समापन हो ऐसा महाकाल प्रभु श्री आदि नाथ से कामना करते हैं ।
अलख आदेश ।।।
http://aadeshnathji.com/aghor-samagam/

Wednesday 28 January 2015

मन अति सूक्ष्म अति तीव्र- Man ati sukshm ati teevr



ॐ सत नमो आदेश श्रीनाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश

मन अति सूक्ष्म अति चंचल और अति तीव्र है । इसको नियंत्रित करना उतना ही कठिन एवं जटिल है । मन को नियंत्रित करने का सफल उपाय किसी मछुआरे से सीखना होता है । एक मछुआरा भरे जलाशय में एक मजबूत धागे से अंकुश रुपी काँटा लगा कर फेंक देता है । जलाशय संसार है मन वो मीन जो इधर उधर भटकता रहता है । धागा संयम करने वाला साधन और अंकुश रुपी काँटा मन को संयमित करने का उपाय । मछुआरा आत्म ज्ञान ।
जैसे एक मछुआरा अंकुश रुपी कांटे में कोई जीव लगा कर मीन को आकर्षित करता है । उसी प्रकार आत्म ज्ञान श्रद्धा को साधन बना मन को आकर्षित करता है ।
आकर्षित मीन रुपी मन उस अंकुश रुपी कांटे में फस कर छटपटाता है । मछुआरा उसे उस समय नहीं खींचता अपितु मीन को फंसे रहने देता है । और धीरे धीरे अपनी और खींचता है । कभी भी तीव्र गति से नहीं खींचता है । अन्यथा मन रुपी मीन उस झटके में आहत हो उस अंकुश से घाव लेकर मुक्त हो जायेगा । जब मीन समीप हो तब उसे मछुआरा पकड़ कर एक छोटे से जल पात्र में डाल देता है । और वही जल पात्र उस मीन का संसार बन जाता है ।
इसी प्रक्रिया से मन को नियंत्रित किया जा सकता है।
श्रद्धा रुपी अंकुश से मन रुपी मीन को आकर्षित कर संयमता से मन को नियंत्रित कर एक साधक साधना में अग्रसर हो सकता है ।
अलख आदेश ।।।
http://aadeshnathji.com/man-ati-chanchal

सिद्धि का अर्थ - Siddhi ka arth

सिद्धि का अर्थ किसी भी प्रयास का फल है । चाहे वो एक नौकरी पेशा व्यक्ति का महीने के अंत में मिलने वाली तनख्वाह । या किसी साधक का साधना में सफलता । अलग अलग रूप हैं ।
सांसारिक ने कहा धन की यथोचित समृद्धि । ज्ञानी ने कहा आत्म ज्ञान । साधक ने कहा इष्ट की प्राप्ति ।
जब मैंने अपने गुरुदेव से चर्चा की उन्होंने कहा सिद्धि कुछ नहीं है बस पड़ाव है किसी भी पथ पे चलने वाले पथिक का । सिद्धि किसी भी साधक को सही पथ पे चलने का मार्ग दर्शन है ।
धन की प्राप्ति : धन क्षणिक है सांसारिक भोग विलास के कार्य आने वाला एवं सुलभता हेतु एक मार्ग । आवश्यक पर परम आवश्यक नहीं ।
आत्म ज्ञान : स्वयं का ज्ञान सबको है । सभी को पता है कि मैं क्या कर सकता हूँ । क्या नहीं कर सकता वो बस भ्रम है । जो नहीं किया जा सका उसके कार्य में कुछ कमी है । अगर मैं शिवांश काली का पुत्र और काली पुत्र भैरव का प्रिय हूँ तो जिस रूप में माँ को प्रेम से बुलाऊंगा या जिस प्रकार माँ को पुजुंगा माँ स्वीकारेगी । यह आत्म विश्वास है दंभ नहीं । माँ के प्रति प्रेम है । जो खाऊंगा माँ को वही भोग लगाऊंगा । माँ वही ग्रहण करेगी । जो कार्य करूँगा माँ उस कार्य में सहयोग करेगी एवं हर संभव विधि से रक्षा करेगी ।
इष्ट की प्राप्ति : हर जीव में माँ का अंश है । माँ कोई भी रूप लेकर सामने आ जाएगी । किस विधि से सामने आएगी क्या बोलेगी क्या कराएगी सब उनकी माया है । किस रूप में आवाज देगी यह समझना साधक का कार्य है । जिस रूप में पूजें क्या वही रूप आएगा बात करने ? माँ को पूजा दस भुज रूप में माँ आई दो भुजी । सब माया है । परम तो बस शून्य है । शून्य का कोई रूप नहीं । रूप है तो फिर अनेक ।
सिद्धि फलित तब जब परमेश्वर का अहसास हमेशा हो । काली पुत्र का संग हमेशा रहे । प्रेम से सरोबार जब क्रोध लोभ मोह के बंधन का अहसास ना हो । हर जीव माँ के रूप में मुस्कुराये ।
अलख आदेश ।।।

सिद्धि का अर्थ - Siddhi ka arth

सिद्धि का अर्थ किसी भी प्रयास का फल है । चाहे वो एक नौकरी पेशा व्यक्ति का महीने के अंत में मिलने वाली तनख्वाह । या किसी साधक का साधना में सफलता । अलग अलग रूप हैं ।
सांसारिक ने कहा धन की यथोचित समृद्धि । ज्ञानी ने कहा आत्म ज्ञान । साधक ने कहा इष्ट की प्राप्ति ।
जब मैंने अपने गुरुदेव से चर्चा की उन्होंने कहा सिद्धि कुछ नहीं है बस पड़ाव है किसी भी पथ पे चलने वाले पथिक का । सिद्धि किसी भी साधक को सही पथ पे चलने का मार्ग दर्शन है ।
धन की प्राप्ति : धन क्षणिक है सांसारिक भोग विलास के कार्य आने वाला एवं सुलभता हेतु एक मार्ग । आवश्यक पर परम आवश्यक नहीं ।
आत्म ज्ञान : स्वयं का ज्ञान सबको है । सभी को पता है कि मैं क्या कर सकता हूँ । क्या नहीं कर सकता वो बस भ्रम है । जो नहीं किया जा सका उसके कार्य में कुछ कमी है । अगर मैं शिवांश काली का पुत्र और काली पुत्र भैरव का प्रिय हूँ तो जिस रूप में माँ को प्रेम से बुलाऊंगा या जिस प्रकार माँ को पुजुंगा माँ स्वीकारेगी । यह आत्म विश्वास है दंभ नहीं । माँ के प्रति प्रेम है । जो खाऊंगा माँ को वही भोग लगाऊंगा । माँ वही ग्रहण करेगी । जो कार्य करूँगा माँ उस कार्य में सहयोग करेगी एवं हर संभव विधि से रक्षा करेगी ।
इष्ट की प्राप्ति : हर जीव में माँ का अंश है । माँ कोई भी रूप लेकर सामने आ जाएगी । किस विधि से सामने आएगी क्या बोलेगी क्या कराएगी सब उनकी माया है । किस रूप में आवाज देगी यह समझना साधक का कार्य है । जिस रूप में पूजें क्या वही रूप आएगा बात करने ? माँ को पूजा दस भुज रूप में माँ आई दो भुजी । सब माया है । परम तो बस शून्य है । शून्य का कोई रूप नहीं । रूप है तो फिर अनेक ।
सिद्धि फलित तब जब परमेश्वर का अहसास हमेशा हो । काली पुत्र का संग हमेशा रहे । प्रेम से सरोबार जब क्रोध लोभ मोह के बंधन का अहसास ना हो । हर जीव माँ के रूप में मुस्कुराये ।
अलख आदेश ।।।

क्षोभ और संसार

क्षोभ शायद मनुष्य जीवन का हिस्सा बन गया है । सांसारिक को संसार में रहने का क्षोभ , मनुष्य को मनुष्य योनि में आने का क्षोभ , सन्यासी को संन्यास में होने का क्षोभ , पुत्र को पिता से क्षोभ , पिता को पुत्र से क्षोभ । जो मिला उससे क्षोभ जो ना मिला उसका क्षोभ ।
हे साधक जो मिला उससे प्रसन्न रहो । जैसे मिला या मिलेगा वह महामाया का प्रसाद है । प्रसाद समझ के ग्रहण करो । प्रसाद हमेशा सर्वोत्तम ही होता है । बहाने न खोजो कि यह ऐसे ख़राब है वो वैसे ख़राब है । शरीर है तो शरीर से प्रेम करो त्याग कर परम बनने की चाह में इस शरीर को निरर्थक ना समझो । मात्रि कष्ट के चरम सीमा से प्राप्त हुए इस शरीर से ही यह ज्ञान, बात करने और सोचने की क्षमता प्राप्त हुई है । महामाया के परम रूप को जानने का अवसर मिला है । तो अब इससे ही घृणा क्यों?
जब तक है प्रेम करो और विदेह बनने का प्रयास करो । जब शरीर से आत्मा का प्रस्थान हो जायेगा तो परम बनने का प्रयास करना । शायद क्षोभ में ही क्षोभ को परिभाषित किया जा सकता है । शायद इसिलिए क्षोभ करने वाले मनुष्य पर मेरा क्षोभ ।।
अलख आदेश ।।।

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Wednesday 21 January 2015

अविरल धारा- Aviral dhara

मैं तो नदी की अविरल धारा हूँ बहता रहूँगा ,बिना रुके बिना ठिठके ।
जो मिलेंगे मिलता जाऊंगा जो छूटेंगे छोड़ता जाऊंगा पर बहता जाऊंगा ।
कुछ साथ चलेंगे तो लेकर चलता जाऊंगा ।
कुछ ज्ञान रूपी जल को मिलायेंगे समाहित कर चलता जाऊंगा ।
कुछ ज्ञान रूपी जल को पि लेंगे पिलाता जाऊंगा ।
कुछ गंदगी धोयेंगे धोता जाऊंगा पर बढ़ता जाऊंगा ।
कुछ पत्थर फेंक केे आनंद लेंगे देता जाऊंगा पर बढ़ता जाऊंगा ।
कुछ मेरे बहाव को रोकेंगे तो घूम कर बढ़ता जाऊंगा ।
कुछ की शक्ति अधिक है साधन सक्षम हैं तो रुक जाऊंगा ।
पर समय समाप्त होते ही निकल जाऊंगा पर बढ़ता जाऊंगा ।
अंत में महामाया रुपी महासमुद्र है । जिसमे समाहित हो जाऊंगा ।
स्व मैं मेरा मुझे मुझसे घाव गंदगी एवं सबके दुःख और घृणा को खो जाऊंगा ।
अंत में माँ की गोद में सो जाऊंगा ।
अविरल बढ़ता हुआ अंत में थम कर माँ की गोद में विश्राम कर पाउँगा ।
अलख आदेश ।।।

http://aadeshnathji.com/aviral-dhara/

औघड़ वाणी- Aughad waani

भूत वर्तमान और भविष्य जीवन के स्तम्भ हैं । पर वर्तमान है कहाँ? अभी जो पढ़ा या किया वो भूत में चला गया और जो पढने वाले हो वो भविष्य है । पग बढाया वो भूत जो बढाने वाले हो भविष्य ।
वर्तमान का सन्दर्भ किस तथ्य पर सुशोभित होता है ।
वर्तमान शायद एक त्रिकोण के उस जोड़ के सामान है जो बिंदु से भी छोटा है । एक रेखा भविष्य है एक भूत । जो व्यक्ति उस वर्तमान में स्थिर हो गया वो कभी बदला ही नहीं । ऐसी अपेक्षा बस एक साधक से की जा सकती है जो परम हो गया ।
ना भूतकाल उसे अपने में समाहित कर पायेगा ना ही भविष्य की चिंता उसे परेशान कर पायेगी ।
जिसके शरीर को कभी क्षति नहीं पहुचेगी ना ही उसका मन कभी विचलित होगा ।
शायद परम परमात्मा उस वर्तमान रुपी अति सूक्ष्म जोड़ पर विराजमान हो भूत और भविष्य को नियोजित रूप से चला रहे हैं । एक साधक की परम गति तब होगी जब वह भी उस वर्तमान रुपी जोड़ पर प्रभु से लीन हो जाये ।
साधक का मुख्य कार्य गहन से गहन रूप की व्याख्या समझनी होती है । उत्सुकता और गहन अध्ययन किसी भी रूप की वर्तमान रुपी अति सूक्ष्म जोड़ को समझने की गति प्रदान करता है ।
अन्यथा जो भूत और भविष्य के ऊपर घूमता रहा वो उसी उधेड़बुन में भविष्य रुपी काल और भूत रुपी गत में फस गया ।
अलख आदेश ।।।
http://aadeshnathji.com/aughad-waani-8/

औघड़ वाणी - aughad waani

औघड़ वाणी: क्या आज कल तंत्र और अघोर बस प्रयोगों में समाहित हो गया है? नौकरी नहीं प्रयोग बताओ । मन नहीं लगता प्रयोग बताओ । घर में पति पत्नी में अनबन है प्रयोग बताओ । आज कल हर प्रयोग के लिए प्रयोग बन गए । कभी लगता है तंत्र आत्म ज्ञान स्वः अनुभूति से कहीं दूर है । जब सांसारिक भटक गया तो कई भटकाव दीक्षा वाले गुरु भी अवतारित हो गए । ऐसे अनेक गुरु रूपी गुरु घंटाल हर नुक्कड़ पर बैठ गए जो घंटो में प्रेमी या प्रेमिका को वापस लाने का दावा करने लगे । और कामांध सांसारिक मृत अवश्यम्भावी देह को पाने के लिए विचलित हो गया ।
कुछ महानुभावों ने गुरु धर्म का फायदा उठाया । दीक्षा दूंगा इतने पैसे दो । आय का दशांश दो । घर की परेशानी, अनबन दूर कर दूंगा । रक्षा करूँगा । बस धन देते जाओ ।
एक ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने नौकरी छूटे व्यक्ति से 50,000 की मांग रख दी । पैसे लाओ नौकरी दिलवा दूंगा । नौकरी तो नहीं मिली अपितु जिनसे पैसे मांग के दिए थे वो मांगने लगे ।
ऐसे भटकाव वाले दीक्षा गुरु खुद मसान नहीं जाते पर अपने शिष्यों को मसान साधना सिखाते हैं ।
क्या सांसारिक इतना कामांध और मानसिक रूप से कमजोर है कि जहाँ तिलक और वस्त्र के रंग देख लिया दौड़ पडे ?
और ऐसे तथाकथित गुरु भी हर मौके पर देव और देवियों को बदनाम करने लगे । इसका दोष उसका दोष दिखाने लगे । और सांसारिक सब कुछ यथाशीघ्र पाने की आपाधापी और सारे काम तुरंत कराने के चक्कर में और परेशान होने लगे ।
जब संत कौन है गुरु का भाव कैसा होता है सभी को पता है तो ऐसा कार्य क्यों?
अलख आदेश ।।।
http://aadeshnathji.com/aughad-waani7/

महाकाली प्रचंड है- Mahakali prachand hai

महामाया महाकाली प्रचंड है पर राक्षसी नहीं । भैरव क्रोधेश हैं भूतपति हैं पर शैतान या राक्षस नहीं हैं । आज कल हिन्दू धर्म के पतन के लिए चित्रकार रुपी महानुभावों ने अजीब अजीब चित्रें बना कर सबके सामने प्रस्तुत कर दी हैं । जिन लोगों को सत्यता का भान नहीं वो उन्ही चित्रों के माध्यम से मात्रि स्वरूपी महामाया की विपरीत रूप वाली छवि की साधना करते हैं या भयभीत हो सभी को भयभीत कराते हैं ।
महामाया का प्रचंड रूप अपनी संतान की रक्षा करने के लिए होता है । इस संसार में भी अगर आप किसी स्त्री की संतान को हानि करने की कोशिश करते हैं । एक अबला स्त्री प्रचंड रूप लेकर अहित करने वाले शक्तिशाली पुरुष से भी लड़ जाती है । किसी भी मात्रि स्वरुप चाहे वो श्वान प्रजाति की हो या बन्दर प्रजाति की । हर रूप में माँ अपने संतानों के लिए प्रचंड भाव रक्षा हेतु रखती है ।
महामाया के हस्त कमलों में अस्त्र शस्त्र हैं पर वे सभी सुप्तावस्था में होते हैं । माँ के हाथों ने वर एवं अभय का भाव सर्वोपरी है । जिससे माँ अपने अभय मुद्रा से गोद में उठा वर मुद्रा हस्त से अपने संतान एवं अंश के सर में हाथ फेरती हैं । और मनुष्य के शत्रु (क्रोध , मोह, क्षोभ इत्यादि) को अपने शस्त्रो से काट देती हैं । माँ के अति प्रचंड रुपी स्वरुप में अभय और वर मुद्रा स्पष्ट रूप से दिखता है । जिनको माँ की आखों में डर की अनुभूति होती है । वो उग्र रूप में प्रचंड हुई स्त्री के आँखों का स्मरण कर लें । उस स्त्री की आँखें भी रक्तिम एवं क्रोध से परिपूर्ण होती हैं । प्रचंड रुपी स्वरुप में अगर माँ के मुख को देखा जाये तो माँ हसती हुई प्रतीत होती है जो सभी प्रकार के डर भय के भाव को नष्ट करने की क्षमता रखता है ।
अलख आदेश ।।।
http://aadeshnathji.com/mahakali-prachand-hai/

औघड़ वाणी - Aughad waani

औघड़ वाणी : इक साधक का जीवन अति कठिन होता है । वाणी , रहन सहन , भाव – भंगिमा , जीवन शैली आदर्शों के एक पतली सी रस्सी पर चलने के समान होता है । इसी पर चलते जाना है जब तक स्वयं महामाया अपनी गोद में ना उठा ले । जब तक स्व से परम ना बन जाएँ ।
अन्यथा थोड़ी सी भी चूक बदनामी के अँधेरी घाटी में गिरा देता है । ऐसा बस साधक के संग नहीं होता अपितु वह अपने आराध्य एवं पंथ की छवि को भी ठेस पहुचाता है । तथा श्रद्धा रखने वाले शिष्य एवं मनुष्य की श्रद्धा को भी हानि पहुचाता है । अतः साधना पथ पर उन्नति प्राप्त कर चुके साधक की वाणी और कर्म सम भाव में ना हों तो उसके संग इष्ट , मनुष्य की श्रद्धा एवं भक्ति भी हानि सहन करती है ।
अलख आदेश ।।।
http://aadeshnathji.com/aughad-waani5/

अघोर पंथ- Aghor panth

अघोर पंथ की परिभाषा ही घोर से घोरतर और घोरतर होकर भी अघोर ।।।
अघोर पंथ की साधना करने एवं दीक्षा हेतु एक साधक को अनेक बातों का ध्यान रखना होता है ।
पर मुख्यतः एक साधक के अंदर निम्लिखित गुणों का होना आवश्यक है ।
1. साधक को निर्भय और निडर होना होता है । अघोर पंथ की साधना में विपरीत अनुभुतियों का भण्डार है । एक अघोर साधक वीर मार्गी साधना में अग्रसर होता है । अतः इस साधना में उग्र परीक्षा होती है । साधक के समक्ष अति दुष्कर परिस्थिति का भान होने लगता है । साधना स्थल पर विभिन्न शक्तियों का आगमन होता है । अगर साधक निडर ना हो और प्रेत या पिशाच के द्वारा निकाली गयी आवाजों या दृश्य से भाग खड़ा हो तो नकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।
2. साधक सम भाव से रहे । अघोर साधक को कष्ट दुःख दर्द प्रसन्नता एवं सुख में सम भाव से रहना आना चाहिए । अक्सर देखा जताभई कि एक साधक जब परिस्थितियां विपरीत हो तब ज्यादा साधना करते हैं और जब प्रसन्न तो साधना भूल जाते हैं । साधना हर समय चलते रहना चाहिए । दुःख हुआ तो क्रोध करने लगे प्रसन्न हुए तो सबको आशीर्वाद देने लगे । जब सारी परिस्थिति में सम भाव से रहें तो साधना में सफलता मिलती है । भाव इष्ट एवं गुरु का होना चाहिए । उस भाव में भी सम रहने का प्रयास होना चाहिए ।
3. घृणा इर्ष्या द्वेष मोह माया आसक्ति एवं क्रोध से यथा शक्ति दूर होना चाहिए । जब किसी की सफलता या उपलब्धि हो तो इर्ष्या का या द्वेष का भाव उत्पन्न नहीं होना चाहिए । किसी भी वस्तु व्यक्ति या जीव से किसी भी रूप में घृणा नहीं करनी चाहिए । मल मूत्र गन्दगी से साधना में विघ्न होगा यह बस मन के भाव हैं । इन सब भाव को त्यागना होता है ।
4. परम सत्ता का दर्शन हर जीव वस्तु एवं पदार्थ में होना चाहिए । यह संसार महामाया का बनाया हुआ है । हर जीव वस्तु एवं पदार्थ में महामाया के अंश का दर्शन होना चाहिए ।
5. ज्ञान गंगा को समेटने की शक्ति । ज्ञान गंगा कही से से भी प्रवाहित हो सकती है । जहा से ज्ञान मिले ग्रहण करने की क्षमता पूर्ण रुपेन विकसित होनी चाहिए । कभी एक छोटा बालक या बालिका अति गुह्य बात कह जाते हैं । जाने अनजाने में कोई व्यक्ति कुछ बता जाता है । इन सभी बातों को ग्रहण करने की क्षमता होनी चाहिए ।
6. दंभ स्व प्रतिष्ठा से दूर होना चाहिए । मनुष्य शक्तियों के भाव में स्व प्रतिष्ठा पाने का भाव रखते हैं । जो मिला है महामाया का प्रसाद है । मेरा कुछ नहीं । मेरे पास कुछ नहीं । इस भाव के संग जीवन सफल होता है । अन्यथा ईवा और प्रतिष्ठा का भाव या आकांक्षा रखने से क्रोध और इर्ष्या उत्पन्न होती है ।
7. अंतत गुरु के प्रति श्रद्धा का भाव हमेशा होना चाहिए । गुरु के वाक्य सर्वोपरि होने का भाव होना चाहिए । गुरु से चर्चा अवश्य होनी चाहिए । अपना तथ्य सामने रख कर गुरु से वार्ता बिना अश्रद्धा के करनी चाहिए । गुरु ही सूत्र धार हैं । गुरु ही परम परमात्मा हैं । गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान को आत्मसात करना चाहिए ।
इन सारे मुख्य रुपी आचरण से पात्रता में वृद्धि होती है । और गुरु कृपा एवं इष्ट प्राप्ति होती है ।
अलख आदेश ।।।

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मोह माया एवं इक्षा- Moh maya aur iksha

मोह माया एवं इक्षा तो साधना पथ में भी होता है । साधक की महामाया के दर्शन की वार्ता करने की सम्मुख मात्रि प्रेम पाने की होती है । पारलोकिक शक्तियों को देखने एवं यथार्थ जानने की इक्षा होती है । यह भी तो मोह है । महामाया के माया में कार्य सिद्धि की इक्षा भी तो माया का अंश है ।
पर एक सच्चा साधक बिना इक्षा किये अग्रसर होता है । उच्च कोटि के साधक बिना किसी इक्षा के साधना करते हैं । उनकी साधना करने की इक्षा ऐसी होती है जैसे एक तैराक जिसे बस तैरना अच्छा लगता है । तट पर आकर तैराकी को समाप्त करना नहीं । इस साधना रुपी नदी में डूबते रहें तैरते रहें । सब सुलभ हो जाता है ।
महामाया के दर्शन की इक्षा होती है फिर भी इक्षा को प्रकट किये बिना साधना करते हैं । इस साधना रुपी पथ पर बस चलते रहते हैं । इस पथ पर भ्रमित करने तथा भटकाने हेतु महामाया सिद्धियाँ प्रदान करती रहती है । सिद्ध साधक सिद्धि होने के वावजूद उस सिद्धि का भान नहीं रखते । अघोर सिद्धियों को अपने मुंड में जगह दे देते हैं । अपने पास रखने या उन सिद्धियों से कार्य की अभिलाषा नहीं रखते । शिष्यों तथा निकटतम व्यक्तियों का कल्याण भी करते हैं पर प्रसिद्धि या सेवा की इक्षा नहीं रखते हैं । जब सिद्धि या शक्तियों से कार्य हेतु इक्षा होने लगे तो उसी में रमने की इक्षा होने लगती है ।
अतः जो साधक मोह करके भी मोह ना करें । दर्शन की अभिलाषा हो पर सब माँ की इक्षा और प्रारब्ध पर छोड़ दें । जब माया के संग होकर भी माया का तनिक भान ना हो । महामाया प्रसन्न भाव में शिशु रूप में गोद में उठा कर प्रेम करती है ।
अलख आदेश ।।।

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श्रद्धा और भक्ति - Shraddha aur bhakti

श्रद्धा किसी और से प्रभावित होकर नहीं की जाती । श्रद्धा भक्ति और विश्वास अपने अनुभव से होता है । कोई साधक अपने गुरु के लिए किसी से भी लड़ जाता है और कोई समझाता है । उसी तरह अगर कोई अपने गुरु के बारे में बताये तो पहले उनसे चर्चा करें । उनकी भक्ति को समझे । उनकी भक्ति से मार्ग दर्शन लें ।
कोई जब मुझसे मेरे गुरुदेव के बारे में कहता है । मेरी प्राथमिकता होती है पहले उनसे संपर्क करो । ज्ञान प्राप्त करो । उनका मुझे शिश्य रूप में स्वीकार करना मेरे लिए महामाया कि कृपा थी । शायद किसी और लिए कोइ और कारन हो सकता है । क्यूंकि साधना पथ पर आप अकेले चलते हैं ।
गुरु पथ का मार्ग दर्शन कर महामाया के सामने खड़ा कर देते हैं । पर दर्शन करना किस रूप में माँ का दर्शन होगा यह स्वयं की श्रद्धा है ।
गुरु कहें हर जीव पदार्थ में शिव हैं महामाया हैं । साधक उनका अनुसरण करे पर हर जीव के आँखों में माँ का दर्शन करे । अपनी अपनी श्रद्दा है । अतः मार्ग दर्शन लें संतों से मिलें । ज्ञान प्राप्त करें । किसी ने गुरु बना लिया आवश्यक नहीं की वो आपके भी गुरु बन जाएँ ।
कुछ सांसारिक कहते हैं इस संत से जुड़े हुए व्यक्तियों में सब उच्य स्थान पर हैं । किसी भी चीज का आभाव नहीं है । क्या संत संगती धन प्राप्ति के लिए की जाती है? कदापि नहीं ।
संत संगती आत्म शुद्धि एवं स्वयं चिंतन के लिए की जाती है । जब आत्मा शुद्ध होगी एवं आत्म क्षमता का आभास होगा तब सारे मार्ग स्वयं दिखेंगे । उत्तीर्णता स्वयं में आत्मसात होगी । कोई मार्ग अवरुद्ध नहीं होगा ।
अलख आदेश ।।।
http://aadeshnathji.com/shraddha-bhakti-vishwas/

Tuesday 20 January 2015

अघोर पंथ - Aghor panth

मैं अघोर पंथ में आना चाहता हूँ । अघोर विद्या सीखना चाहता हूँ । अघोर पंथ मुझे बहूत अच्छा लगता है । ऐसे प्रश्न अधिकाधिक सुनने को मिलते हैं । अघोर पंथ लिखित रूप तथा सुनने में रोमांचक अवश्य है । पर व्यावहारिक रूप में कठिन है । अघोर पंथ में असरल हो चुके मनुष्य को सरल बनना होता है । व्यसक हो चुके मनुष्य में वापस शिशुत्व भाव को जागृत कराता है । एक मनुष्य जो भेद करना सीखता है उसे भेद रहित बनना सिखाता है ।
इन सब रहस्यों को पलट कर वापस उसी भाव में आना अत्यधिक दुष्कर है । इस मंच का उद्देश्य किसी को अघोर पंथ की दीक्षा देना कदापि नहीं है । ना ही अघोर पंथ में आने का आग्रह करना है ।
जो साधक अघोर पंथ में आना चाहते हैं उनसे निवेदन है पहले अपने अंदर की क्षमता को आंकें । अघोर की जीवन शैली और कठिनाईयों को समझें ।
अघोर सुख सुविधा कष्ट एवं कठिन परिस्थितियों में सम रहता है । ऐसे में सांसारिक अपने घर में ही बिना रौशनी के रह के देखें । बिना भय के साधना करके देखें । जब साधना में भय का स्थान ना हो तब अघोर साधना की ओर अग्रसर हों । अन्यथा साधना में असफ़लता एवं अनुभूतियों का आभाव रहता है । साधक को जब किसी भी वस्तु से या व्यसन से प्रेम हो जाये उससे दूर होकर देखें । घृणा की जगह प्रेम से दूर होकर देखें ।
मसान में विरक्ति का अनुभव करने मसान में बैठ कर देखें । रोमांच के लिए या शीघ्र अनुभूति के लिए अघोर में ना आयें । अघोर पंथ दो धारी तलवार है जिसमे मूठ नहीं है । नग्न हाथों से ही पकड़ना है । चलाने में अगर थोड़ी सी भी चूक हुई तो स्वयं को आहत करना अवश्यम्भावी है । मेरे इस लेखन का उद्देश्य भयभीत करना नहीं है पर जो साधक अघोर के बारे में साहित्य एवं श्रवन कर अघोर में बिना जाने आना चाहते हैं उन्हें अघोर पंथ की वास्तविकता से साक्षात्कार कराने का प्रयास कर रहा हूँ ।
अतः अघोर में आने से पहले इस पंथ की वास्तविकता को समझें । फिर इस पंथ में आने का निर्णय करें ।
अलख आदेश ।।।

http://aadeshnathji.com/aghor-panth-3/

श्री आदेश नाथ जी

मेरे गुरुदेव प्रभु श्री आदेश नाथ जी के अनुपम वचन :
सत युग, त्रेता युग और द्वापर युग में एक अच्छी बात थी कि उस समय मनुष्य , देव एवं दानव की वेश भूषा , वार्ता , रहन सहन अलग थी ।
देव सुन्दर स्वच्छ आभूषण युक्त एवं संस्कृत बोलते थे । सभी से प्रेम तथा कृपा करते थे । देव सत्कर्म में लीन रहते थे ।
मनुष्य साधारण क्रियाकलापों को करते और हिंदी बोलते थे । सांसारिक कृत्य कर परमेश्वर की उपासना करते थे ।
दानव गंदे एवं मांस मदिरा पी कर उद्धम मचाते थे । अपशब्द बोलते थे । मनुष्य तथा देवों को परेशान करते थे।
जब कलिकाल का पदार्पण हुआ तब सब एक सम हो गए । सबकी वेश भूषा व्यवहार तथा वार्ता एक सामान हो गयी । अंतर कर पाना मुश्किल हो गया ।
सब एक साथ रहने लगे । देव मनुष्य और दानव के भाव ही इस पृथ्वी पर रह गए ।
पर मनुष्य की बुद्धि जीवित है । देव मनुष्य और दानव में भेद उनके कार्य कलापों से ज्ञात किया जा सकता है । पर व्यवहार तथा भेद जानने के लिए थोडा परिश्रम करना पड़ेगा । भाव तथा क्रिया कलापों से ही जाना जा सकता है कि कौन देव है कौन मनुष्य और कौन दानव ।
जय गुरुदेव ।।। श्री नाथ जी गुरु जी को आदेश आदेश आदेश ।।
अलख आदेश ।।।

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औघड़ वाणी- Aughad waani

औघड़ वाणी : मनुष्य किसी साधक में एक अलोकिक प्रकाश देखते हैं । प्रकाश पुंज को खोजते हुए जब प्रकाश पुंज की ओर अग्रसर होते हैं । जब प्रकाश की ओर बढ़ते हैं । तब प्रकाश पुंज तेज होता जाता है संग में उस प्रकाश की ऊष्मा भी तेज होती है । शरीर का तेज एवं ऊष्मा में भी वृद्धि होती है । जब प्रकाश पुंज के निकट होते हैं तब शरीर से भी तेज निकलता है ऊष्मा निकलती है प्रकाश निकलता है । अगर साधक उस समय इस भान में रहे कि तेज, ऊष्मा या प्रकाश उससे प्रवाहित हो रहा है तो भटक जाता है ।
इस बात को भूल जाता है कि प्रकाश परम पुंज से निकल कर उससे मात्र प्रवाहित हो रहा है। कुछ साधक प्रकाश पुंज तक पहुँचने से पहले ही बैठ कर अपने आप को परम समझने लगते हैं ।
अपितु परम तो कुछ और दूरी पर है ।
जो साधक परम तक पंहुचा और परम प्रकाश पुंज में समाहित हो गया वह उसी में लीन हो गया ।
अलख आदेश ।।।

औघड़ वाणी - Aughad Waani

औघड़ वाणी: मैं औघड़ हूँ धारा प्रवाह अपशब्द बोल सकता हूँ । मैं माँ की छांव में रहता हूँ कोई मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकता है । मसान का मैं बाप हूँ । अपशब्द बोलना नीचा दिखाना ।
यह सारे दंभ की निशानी हैं ।
किसी मनुष्य को अपशब्द बोलने से पहले उसके अंदर के परम तत्व रुपी परमात्मा के अंश को समझो । अपशब्द नहीं निकलेंगे ।
जब एक साधक माँ की छांव में कुकृत्य करता है तो माँ उसे दण्डित करती है । अपनी छांव से बाहर निकाल देती है । जब माँ की छांव रहेगी नहीं तो कोई भी नकारात्मक शक्तियां प्रभाव डाल सकती हैं ।
कोई किसी से कम ज्ञानी नहीं होता । बस ज्ञान और सत्य का आयाम पृथक होता है । अतः कोई किसी से नीचा तो कदापि नहीं हो सकता है ।
मसान के अधिपति स्वयं महादेव हैं जहाँ पर भैरव और काली महादेव के संग निवास करते हैं ।
मसान को प्रेम से जागृत किया जाता है । अगर प्रेम के संबोधन से मसान जागे तो मसान के अधिपति का भाव नहीं आना चाहिए ।
अलख आदेश ।।।

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श्रृष्टि की रचना- Shrishti ki rachna

श्रृष्टि की रचना का उद्देश्य क्या है यह तो ज्ञात नहीं । पर अगर तर्कानुसार सोचता हूँ तो कभी ऐसा प्रतीत होता है जैसे महाकाल महादेव एक ऐसे मनुष्य जिन्होंने परम अवस्था को सर्वप्रथम प्राप्त कर लिया । परम अवस्था को प्राप्त देव स्वरूपी परब्रम्ह हो गए समयानुसार दर्शन दे कर सबको ज्ञान और भक्ति का मार्ग दर्शन दिया ।
कभी लगता है कि हम सब महामाया और महादेव के क्रीडा स्थल पर खेल रहे हैं । जैसे umpier के हाथ ने points देने की क्षमता हो । बस उनका खेल हम खेलें और जिसका खेल उत्तम लगा उसे points मिल गए । नियम भी उन्ही के खेल भी उन्ही का कानून भी उन्ही के । हम खेल में तल्लीन हो खेले जा रहे हैं ।
सब कुछ महामाया के हाथ में कैसे है यह तो स्वयं किसी भी कार्य में समझ सकते हैं । आप कोई भी कार्य करें पर अंत में क्या फल होगा यह भी नहीं पता होता । क्या पता काम ही ना बने । क्या पता काम रुक जाये और क्या पता सोची समझी हुई कार्य प्रणाली काम ही ना करे ।
पर जहाँ तक मुझे लगता है भगवान् का एक रूप हमारे अंदर भी है । जिसे जागृत करने से अपनी इक्षा के अनुसार कार्य किया जा सकता है । जब स्वयं का ब्रम्ह जागृत हो जाये तो महामाया भी उस कार्य में बाधा नहीं उत्पन्न कर पाती है । अन्यथा रावन सबसे महान था । उसे भूत भविष्य और वर्तमान ज्ञात था तो दंभ क्यों करता और मृत्यु को प्राप्त करता । शास्त्रों में भी कहा गया है स्वयं के ब्रम्ह को जागृत करो ।
इसिलए शास्त्रों में स्वयं को जागृत करने और नियंत्रित करने की बात कही गयी है । कार्य करो पर स्वयं को ब्रम्ह बना कर साधारण मनुष्य की तरह ही रहो । विदेह होने की उत्तम प्रणाली है ।
अलख ।।।

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अंजरी बजरी- Ajri bajri Aghor sutra

काला निकाल कर लाल डालो
अंजरी बजरी सब खा लो
चार उंगल थी आठ उंगल फटी
तब नाथो के आगे नाठी ।।
अघोर साधक के लिए ये चार पंक्ति अति मूल्यवान हैं । साधना में अग्रसर होते हुए साधक के कर्तव्य अति तीक्ष्ण हो जाते हैं । थोडा स ध्यान भटका और बदनामी के गर्त में गिरे । कलिकाल के दौर में साधकों का मक्खन लगाने वाले संसारिकों से दूर रहना अति कठिन है । ऐसे कई गृहस्त साधक हैं जिनका प्रयास संसारिक प्रपंच से दूर रहना होता है ।
परंतु कलिकाल के गर्त में सन्यासी साधक को भी सांसारिक मोह माया बांध लेती है । ऐसे में साधक क्या करे?
काले का अर्थ संसार के सभी विकार हैं और लाल पूण्य के घोतक । साधक के लिए आवश्यक है संसार में आने वाली हर चीजों को स्वीकारे चाहे वो भोज्य हो या अभोज्य, स्वीकार करने योग्य हो या नहीं । स्वीकार वो सबको करे पर जो ग्रहण के योग्य हो बस उसी को ग्रहण करे ।
संसार में हैं तो संसार से विमुख होना आवश्यक नहीं है । संसार में मोह भी है माया भी है । लोभ भी है क्षोभ भी है । इन सबके साथ रह कर भी इनमे ना फसना साधक का कर्त्तव्य है । कमल के पत्ते पर जल की बूँद के सामान । कीचड में रहकर भी सुंदरता । यही साधक के लक्षण हैं ।
साधना पथ से विचलित ना होना । समय के उंच नीच में सामान रहना ।
साधारण मनुष्य चार आयाम तक सोच या देख सकते हैं । जब साधक सहज भाव से साधना में अग्रसर होता है तब उसके अष्ट आयामी दृष्टि कोण उसे महादेव प्रभु श्री आदिनाथ के सामने खड़ा करते हैं ।
अगर सांसारिकता के मोह ऐवम मायाजाल में फसे तो बस यहाँ की सुलभता पर ऐश कर सकते हैं और वाह वाही लूट सकते हैं । पर यह मनोरंजन और वाह वाही और सुलभता पल पल आपको वापस संसार में खींच रही होती है । शब्दों में ना कह पाएं और शब्दों को बदलने से मन के भाव नहीं बदल पाते । सांसारिक किसी महानुभाव के शब्दों की जयजयकार करते हैं । पर मन और कर्म के भाव की प्रमुखता महादेव के सामने खुल कर आती है ।
अपने कार्यों को संतुलित करें और मन के भाव को साधना पथ पर रखें । शब्दों का सूक्ष्मता से चयन करें । अन्यथा महामाया का अधो त्रिकोण रुपी परीक्षा तल इसी संसार के कर्मों में बाँध देगा ।।
अलख आदेश ।।।
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घोर अघोर- Ghor Aghor

अघोर का अर्थ जो घोर हो घोर से भी घोर और उसे भी घोरतर हो पर उस घोर में रह कर भी लीन ना हो । घोर का अर्थ किसी भी रूप में लिया जाये अगर मोह माया का लिया जाये तो महादेव मोह माया के घोर स्वरुप में हैं हर संतान सम है उनके लिए । महादेव की संतान मनुष्य पशु पक्षी दानव दैत्य सब हैं । महादेव को सबसे मोह है। मोह के घोर से भी घोर रूप में महादेव सबसे जुड़े हुए हैं । पर उस परम मोह में रह कर भी महादेव उस मोह से पृथक हैं । मोह होकर भी मोह नहीं है। प्रेम है अत्याधिक प्रेम है पर प्रेम नहीं है।  यही अघोर की परिभाषा है।
अघोर साधक अपने शिष्य से मित्र से मोह का बंधन रखता है । अगर शिष्य के ऊपर कोई विपदा आये गुरु उस विपदा के समक्ष खड़े होते हैं । शिष्य का व्यथा गुरु से बेहतर कौन जाने जब गुरु महामाया से भीगी आँखों से शिष्य के विपदा निवारण हेतु प्रार्थना करते हैं ।
पर ऐसा बंधन होते हुए भी बंधन नहीं होता ।
जब सब कुछ हो फिर भी ना हो । यही अघोर की परिभाषा है ।
अलख आदेश ।।।

अघोर / Aghor

क्या अघोर पंथ खतरों से भरा हुआ है?
हाँ अघोर पंथ खतरों तथा अप्राकृतिक अनुभूतियों से भरा हुआ है ।  इस पंथ के साधक अक्सर विपरीत बुद्धि के होते हैं । जब मन में आया माँ को प्रेम किया कभी बेताली बोल दिया कभी पिशाचिनी बोल दिया । पर प्रेम ह्रदय से करते हैं । ना कोई छल ना कपट ना ही कोई इर्ष्य रखते हैं ।  साधारणतः साधक की इक्षा होती है माँ सौम्य रूप में दर्शन दे । पर अघोर पंथ के साधक माँ को प्रचंड रूप में ध्यान करते हैं । प्रचंड रूप की साधना में प्रचंड अनुभूति एवं अद्भुत विपरीत अनुभूति होती है ।
अघोर पंथ के साधक महामाया तथा महाकाल में रमे हुए होते हैं ।
अघोर पंथ की परीक्षा भी कठिन होती है । जो साधक परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ वो सब कुछ पाया अन्यथा सब कुछ त्याग कर भूल गया ।
अघोर उन साधकों के लिए कदापि नहीं है जो भय में साधना करते हैं । भैरव की साधना करते समय भय दूर करने के लिए हनुमान जी की फोटो जेब में रखते हैं कि अगर कोई भूत प्रेत आया तो हनुमान जी रक्षा करेंगे ।
रक्षा तो अवश्य होगी पर प्रेत राज क्रोधेश स्वयं रक्षा कर लेंगे । कुछ पाना है तो कुछ परेशानियों से गुजरना भी पड़ेगा ।
आग का दरिया है डूब के जाना है।
इस दरिया में डूबना तो है बस डूब जाना है। उस पार वही लगायेंगे । अगर खुद कोशिश की निकलने की तो प्रभु बैठ कर मुस्कुराएंगे  ।
अलख आदेश ।।।

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ॐ सतनमो आदेश श्री नाथ जी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश ।।।

ॐ सतनमो आदेश श्री नाथ जी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश ।।।
दादा गुरुदेव श्री श्री प्रेम नाथ अघोरी जी को अलख आदेश ।।।


सदगुरुदेव श्री आदेशनाथ जी अघोरी को अलख आदेश ।।।

अलख आदेश ।।।