ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश
मैं अघोर में आना चाहता हूँ । मैंने इतने वर्ष व्यर्थ कर दिए अपने जीवन
के । अघोर मार्ग सर्वोत्तम मार्ग है इष्ट प्राप्ति का । बस अघोर पंथ के
गुरु मिल जाएँ जीवन सफल हो जायेगा । अघोर साधना से सक्षम होकर दुसरे व्यथित
मनुष्यों का कल्याण करूँगा ।
ऐसे कथन कई साधकों का होता है । अघोर और आध्यात्म के मार्ग पर आने को तो तत्पर होते हैं पर वास्तविकता से कोसो दूर होते हैं ।समय सीमा गुरु के समीप होने का और आध्यात्म में प्रवेश और साधनाओं में सक्षम होने का निर्धारण कदापि नहीं कर सकती है ।
जीवन के वर्ष व्यर्थ कर दो या कई जीवन जब तक पात्र ग्रहण मुद्रा में ना हो और आत्मसात करने को तत्पर ना हो तब तक सदगुरु के दर्शन भी दुर्लभ होते हैं। जब पात्र यथाशक्ति भर जाए और छलकने लगे तो गुरु उसे आकर थाम लेते हैं । और उस पात्र से व्यर्थ की चीजें निकाल उपयोग होने वाली शक्तियों को सम्हाल देते हैं ।
उदहारणतः जब तक व्यायाम का तरीका ना पता हो शरीर को व्यायाम करने योग्य बनाया जाता है । और उस्ताद फिर शरीर की क्षमताओं को निर्धारित कर शरीर निखारना सिखा देते हैं | अतः इष्ट में तन मन धन लगा कर साधना करनी होती है । जब शरीर , साधना , और पात्रता सफल हो जाये तो गुरु स्वयं आकर परीक्षा लेकर कसौटी कर साधक बना देते हैं ।
पर साधक बनने के बाद सब कुछ मिल जाता ऐसा भी नहीं होता । इसके उपरान्त साधक को अत्यधिक प्रखर बनाना होता है । शरीर को और सक्षम बनाना होता है और परिश्रम करना होता है । गुरु आपकी तत्परता एवं क्षमता को देख साधनाएं देते हैं । पर साधना को सफ़ल करना साधक के हाथ में होता है । गुरु चाहें तो शक्तियां दे देंगे पर उन शक्तियों को आत्मसात करना साधक के पक्ष में होता है । शक्तियां मिल गयी पर पता ही ना चले और उनका सम्मान ही न हुआ तो गुरु इसमें क्या करेंगे ।
जैसे मसान में गुरु के संग साधक की सुरक्षा गुरु की जिम्मेदारी होती है । पर अगर साधक किसी प्रचंड शक्ति के आगमन पर भय से मूर्छित हो जाये या सुरक्षा घेरे से उठ कर भाग जाये तो गुरु किसको सम्हालें शक्ति को या शिष्य को?
जीवन के वर्ष व्यर्थ कर दो या कई जीवन जब तक पात्र ग्रहण मुद्रा में ना हो और आत्मसात करने को तत्पर ना हो तब तक सदगुरु के दर्शन भी दुर्लभ होते हैं। जब पात्र यथाशक्ति भर जाए और छलकने लगे तो गुरु उसे आकर थाम लेते हैं । और उस पात्र से व्यर्थ की चीजें निकाल उपयोग होने वाली शक्तियों को सम्हाल देते हैं ।
उदहारणतः जब तक व्यायाम का तरीका ना पता हो शरीर को व्यायाम करने योग्य बनाया जाता है । और उस्ताद फिर शरीर की क्षमताओं को निर्धारित कर शरीर निखारना सिखा देते हैं | अतः इष्ट में तन मन धन लगा कर साधना करनी होती है । जब शरीर , साधना , और पात्रता सफल हो जाये तो गुरु स्वयं आकर परीक्षा लेकर कसौटी कर साधक बना देते हैं ।
पर साधक बनने के बाद सब कुछ मिल जाता ऐसा भी नहीं होता । इसके उपरान्त साधक को अत्यधिक प्रखर बनाना होता है । शरीर को और सक्षम बनाना होता है और परिश्रम करना होता है । गुरु आपकी तत्परता एवं क्षमता को देख साधनाएं देते हैं । पर साधना को सफ़ल करना साधक के हाथ में होता है । गुरु चाहें तो शक्तियां दे देंगे पर उन शक्तियों को आत्मसात करना साधक के पक्ष में होता है । शक्तियां मिल गयी पर पता ही ना चले और उनका सम्मान ही न हुआ तो गुरु इसमें क्या करेंगे ।
जैसे मसान में गुरु के संग साधक की सुरक्षा गुरु की जिम्मेदारी होती है । पर अगर साधक किसी प्रचंड शक्ति के आगमन पर भय से मूर्छित हो जाये या सुरक्षा घेरे से उठ कर भाग जाये तो गुरु किसको सम्हालें शक्ति को या शिष्य को?
शक्ति के प्रहार को कम अवश्य कर सकते हैं पर भोगना तो शिष्य को ही पड़ेगा ।इष्ट प्राप्ति का सुलभ मार्ग अघोर है इस भाव में कदापि ना रहें । अघोर सबसे कठिन मार्ग है । इस पंथ में आने वाली रुकावटें एवं शक्तियों का दर्शन अति प्रचंड होता है । कभी कभी प्रेत भी अत्यंत दुष्कर रूप लेकर सामने आ जाते हैं । कमजोर ह्रदय वाले साधक अघोर पंथ को कदापि ना चुने ।
कई ऐसे साधक हैं जिन्हें प्रेत, शव , रक्त , वीर अट्टहास से भय होता है । ऐसे साधक अगर अघोर पंथ पे क्रियाशील होंगे तो नुक्सान के भुक्तभोगी भी होंगे । अघोर की साधनाएं मसान प्रमुख होती हैं । मसान में सभी शक्तियां उग्र एवम प्रचंड हो जाती हैं । भाव के उंच नीच को भी मसान सहन नहीं करता और दंड देता है । ऐसे में कई साधक काल के ग्रास बन जाते हैं ।
अघोर सौम्य नहीं है कि किसी ने अघोर पंथ के बारे में बताया और तत्पर हो गए अघोर पंथ में साधनाएं करने को । इष्ट की प्राप्ति के लिए साधक को कई कठिन परीक्षा से गुजरना होता है । कठिन परीक्षा दैहिक ,भौतिक, मानसिक के किसी एक रूप में या सभी रूप में हो सकती है ।
कई साधक कहते हैं बस अघोर पंथ में आ जाऊं जीवन सफल हो जायेगा । जीवन तो
सफल हो जायेगा पर यह तो शुरुआत होती है । कई दुर्गम मार्ग से गुजरना होता
है । दीक्षा पुनर्जन्म है पर उसमे समयानुसार आगे भी बढ़ना है । शैशव अवस्था
से लेकर यौवन अवस्था एवम दक्ष अवस्था तक भी जाना है । इनमे किसी एक अवस्था
को पार करने में ही कई जीवन लग जाते हैं ।
कुछ लोग कहते हैं साधना कर दूसरों की सहायता करेंगे । साधना स्वः के लिए
होती है । स्वयं को सिद्ध करना होता है । किसी भी लोभ , इक्षा या स्वार्थ
जनित भाव से साधना कदापि सफल नहीं होती है । जन्म लेकर सिद्ध होने का भाव
रखना बेवकूफी है । सिद्ध आदेशनुसार ही किसी की मदद करते हैं । दूकान खोल कर
बैठने का स्वाभाव सिद्धों का नहीं होता । तंत्र के ऊपर अंध श्रद्धा से
परिपूर्ण समाज में दुकान चलाने एवं तंत्र को बेचने वालों एवं अंध श्रद्धा
को बढ़ावा देने वालों का गत अति दुर्भाग्यपूर्ण होता है ।
अघोर से प्रेम हो तभी अघोर साधनाओं के लिए प्रेरित हों । अघोर वह पंथ है
जिसमे भय , द्वेष , घृणा, मोह, माया, बंधन , सम्मान की चाह और अपमान का भय
नहीं होता ।
अलख आदेश ।।।
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