Friday 13 February 2015

गुरु दीक्षा कोई संस्कार या कोई आयोजन नहीं

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                                      गुरु दीक्षा कोई संस्कार या कोई आयोजन नहीं होता । अपितु एक मनुष्य का पुनर्जन्म होता है । मनुष्य महामाया के गर्भ में तब तक सांसारिक विष्ठा और मूत्र का भोग लगाता रहता है जब तक वह उस गर्भ से बाहर ना आ जाये । संसार रुपी गर्भ में बंधन नाल का बंधन । गर्भ रुपी द्रव्य का मोह माया और आकर्षण रुपी सुविधाजनक आवरण होता है । जिसमें अजन्मे शिशु की आँखे बंद होती हैं । बंद आँखों से वह इस गर्भित संसार की कामना ही कर सकता है । आंकलन ही कर सकता है ।
                                           मात्रि रुपी श्रद्धा उस शिशु को धक्का देकर गर्भ से बाहर निकालने का प्रयास करती है । शिशु के बाहर निकलते ही एक नया संसार उसका स्वागत कर रहा होता है । शिशु के बाहर निकलते ही गुरु रुपी माँ उसे थाम कर अपने वक्ष स्थल से लगा ज्ञान का पान करा देते हैं ।और तब तक उसे मार्ग दर्शन देते हैं जब तक शिशु व्यसक ना हो जाये और स्वयं की संतान करने में सक्षम नहीं हो जाता । अवयस्क शिशु ना खुद को पाल सकता है ना ही अपनी संतान को । अतः मन्त्र दीक्षा के बाद भी कसौटी चलती रहती है । और गुरु साधक की क्षमता का आंकलन करते रहते हैं ।
                                        दीक्षा गुरु के इक्षानुसार और साधक की पात्रता के अनुसार होती है । साधक जब मन्त्र ग्रहण के लिए सक्षम होता है तब उसे मन्त्र दीक्षा मिल जाती है । जब साधना में आगे बढ़ने लगता है तब उसका नामकरण और नादी दीक्षा सम्पूर्ण कर दी जाती है ।पर मन्त्र ग्रहण और मन्त्र प्रदान करने का विधान होता है । मन्त्र के देव को जागृत कर साधक के शरीर में स्थापित करना होता है । मन्त्र सभा में बोलने से किस साधक के शरीर में कौन देवता जागे यह पता कर पाना कठिन होता है । अतः सभा में मन्त्र मिलना अनुयायी बनाने के सामान है । दीक्षा उपरांत शिष्य गुरु की संतान के सामान होते हैं । अगर शिष्य गुरु से समय ना ले पाए गया अर्जन ना कर पाए तो प्रेम के भाव में कमी होने से शिष्य भटक जाते हैं ।
                                कुछ लोग कहते हैं मैंने गुरु को प्रत्यक्ष रूप में देखा था । पर अगर गुरु को दर्शन देने का भान ही ना हो तो वो दर्शन किस काम का?
                              श्रद्धा से पूर्ण साधक को अपने इष्ट के दर्शन अनुभूति के रूप में होते रहते हैं । अतः हर दर्शन आवश्यक नहीं कि प्रत्यक्षीकरण हो । आवश्यक है कि इष्ट और श्रद्धेय को दर्शन का पता रहना चाहिए ।कुछ गुरु तुल्य कहते हैं मैं सारी दीक्षा कर्म को एक बार में ही सम्पूर्ण कर सकता हूँ । गुरु तो कर देंगे पर शिष्य की पात्रता उस कर्म को सहने लायक है या नहीं इस बात का पता गुरु को लगाना आवश्यक है । अन्यथा भटके हुए शिष्य गुरु को बुरा बताने में कोई कसर नही छोड़ते हैं ।
अलख आदेश ।।।

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