Tuesday 10 February 2015

अघोर में गुरु का क्या महत्त्व ?

                                ॐ सत नमो आदेश श्रीनाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश

अघोर में गुरु का क्या महत्त्व है ?
 
                                           साधक अक्सर इस प्रश्न में घुमते रहते हैं गुरु कौन ? उनका गुरु कौन ? कोई एक अनुचित व्याख्या सुनी गुरु के बारे में श्रद्धा खोने लगते हैं । लगता है क्या यही गुरु हैं हमारे ? अगर हमारे गुरु हैं तो उनको कठिनाईयों में रहना चाहिए । कठिन साधनाएं करनी चाहिए ।अघोर पंथ के गुरु हैं तो हमारे कष्ट एक क्षण में दूर होने चाहिए । उनके मुख से निकला वाक्य सर्वदा सिद्ध होना चाहिए । उन्हें हमारे बारे में सब कुछ पता होना चाहिए ।
                                     गुरु कोई हाड मांस धारी पुरुष नहीं है । अपितु स्वयं महादेव का सवरूप है । ऐसा स्वरुप जो नीलकंठ के रूप में आपके साधनाओ में की गयी त्रुटी रुपी गरल को स्वयं धारण करे ।आप देख पायें या ना पायें आपके अर्धसुप्तावस्था में आपका सहयोग करे । हाड मांस के गुरु की उचित परिभाषा मंदिर में स्थित मूर्ति उपयुक्त है । मूर्ति आपके श्रद्धा एवं भक्ति से पूर्ण होकर आपसे वार्ता करती है । ऐसा तभी संभव है जब आपकी भक्ति और श्रद्धा पूर्ण रूप से समर्पित है ।
  
अन्यथा वही मंदिर है वही मूर्ति है पर ना कोई वार्ता है और ना ही दर्शन है ।

                                          अगर आपने गुरु धारण किया है तो निभाओ । जिस प्रकार शरीर उपयुक्त आत्मा को ही प्रवेश प्रदान करती है उसी प्रकार गुरु देख समझ के बनाओ । बनावटी चमत्कारी बाबाओं के पीछे भागोगे तो अनुयायी ही रह जाओगे । शिष्य या साधक बनने का मौका ही नहीं मिलेगा ।जीवन के व्यस्त काल में अगर अध्यात्मिक रूप में प्रगति पाना चाहते हो तो कुछ समय संतों की संगती करो । उनका सानिध्य प्राप्त करो । जब आपकी खोज और आपकी पात्रता पूर्ण हो जायेगी तो महादेव स्वयं किसी रूप में सामने आ जायेंगे ।जब आत्मा कहेगी यहाँ सम्पूर्ण समर्पित कर दो वही महादेव का सवरूप हैं । पर किसी के बहकावे में या किसी के reference पर गुरु मत बनाओ ।
                                         गुरु में कमियां निकालना जैसे हर साधक का प्रथम कर्तव्य हो गया है । अरे मेरे मित्र स्वः में कमियां खोजो । जिसे महादेव ने स्वयं भेजा है वो आपकी पात्रता पूर्ण होने पर ही प्रकट हुए हैं । इसे महामाया का माया जानो कि आपको इस रूप में भटका रही है । बड़ा परख के जला के तपा के ही अपने आँचल में स्थान देती है । जितने समय व्यर्थ करोगे उतना समय महामाया के आँचल में समाने में समय लगेगा ।
                                          गुरु प्राप्ति के बाद अगर आप जागने लगे तो गुरु को ही नीचा देखने लगे । ऐसा भ्रम है । गुरु जिसने सिखाया तपाया उसी को बुरा बोलोगे तो महादेव आपको अपने सान्निध्य में क्यों लेंगे ?महादेव हर पापकर्म क्षमा कर सकते हैं पर गुरुधम का पाप कदापि नहीं । जिसने भी आपको साधना पथ पर सहयोग किया या मार्गदर्शन दिया वो स्वयं महादेव स्वरुप थे । उनसे दूर होने के उपरान्त उन्हें बुरा भला कहना भी अनुचित है ।
                                     गुरु से क्या प्राप्त हो रहा है वो ग्रहण करो । हर शरीर की अपनी जरुरत है । गुरु को अगर भोजन में मछली पसंद है तो रहने दो । अब उन्हें मछली पसंद है तो क्या वो गुरु कहलाने योग्य नहीं रहे ? ऐसा कदापि नहीं है । आप स्वयं का आंकलन करो । गुरु से आदेशित वाणी को आपने कितना आत्मसात किया है । स्वः को तपाओ । गुरु को तपने के लिए ना कहो ।
                                       अपनी शक्तियों को जागृत करो । गुरु सान्निध्य में स्वतः समझ में आ जाता है किस मार्ग में साधना प्रशस्त है । बढ़ते जाओ । आपकी गत क्या है ये महाकाल पर छोड़ दो । वही सर्व ज्ञाता हैं । वो जानते हैं कैसे बढ़ाना है ।
                                    महामाया के दो त्रिकोण का संगम यही दर्शाता है । महाकाल रुपी त्रिकोण अंतरिक्ष की ओर बढाता है जबकि महामाया का त्रिकोण धरा की ओर । ऐसा नहीं की महामाया आपको गर्त में डालती है । महादेव से मिलने से पहले अपने शिशु को सक्षम देखना चाहती है । वापस अपने मायाजाल में घुमाती है । जो साधक इन सब व्यर्थ के प्रपंच में ना पड़े उसे महामाया ही अपने गोद में उठा कर प्रेम अत्याधिक् प्रेम करती है ।ऐसा कोई भी मार्ग या भावना जो आपको आपके गुरु या इष्ट के प्रति भटकाए उससे दूर रहने का प्रयास करें । यही तो मायाजाल है । इसी से बाहर निकलने के बाद महामाया का प्रेम भरा आँचल है ।

महामाया को प्रेम से कहता हूँ । ” तेरे चेहरे से नजर नहीं हटती नज़ारे हम क्या देखें ”

एवं मेरे सदगुरुदेव के लिए “तुमसे मिली नजर के मेरे होश उड़ गए । ऐसा हुआ असर की मेरे होश उड़ गए ” ।।।
अलख आदेश ।।।



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