Friday 13 February 2015

आध्यात्म और ढोंग

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश

                                                       अगर काली एवम् अन्य महाशक्तियों का कोई मूल्य नहीं है , तो क्यों आज कल के गुरु दीक्षा के नाम पर धन राशि लेते हैं और प्रलोभन देते हैं कि आओ मुझसे दीक्षा लो और मैं काली सिद्ध करवा दूंगा, तारा दिला दूंगा , मसान जागरण सीखा दूंगा ।

क्या यह मूल्य घोषित करना नहीं है ?

                                                आध्यात्म को व्यवसाय बनाते आज कल के गुरु की व्यवस्था कदापि समझ में नहीं आ रही है । धन आवश्यक है संसारिक परिवेश में सुलभता हेतु पर क्या साधक अपनी शक्ति अर्थात पत्नी या भार्या का प्रदर्शन कर भीड़ इकठ्ठा करेंगे ? कदापि नहीं ।
                                                   आजकल पात्रता का अर्थ आप कितना खर्च करने में सक्षम हैं यह देखा जाता है । संत से मिलने में सक्षम वह व्यक्ति है जो धनिक है । जो संत संसार त्याग कर चुके हैं वो संसार से बाहर माया के जाल में फसे हुए हैं ।कुछ गुरु नाम धारी तो बिना धन के दीक्षा का प्रश्न ही नहीं उठने देते ।
यह शक्तियों का मोल भाव नहीं तो और क्या है ।
                                              कई साधक तो ऐसे हैं जो कुछ साधनाओ के बल पर संसार का भला करने चल पड़ते हैं । साधना में शरीर को तपा कर इष्ट की प्राप्ति की जगह उनका विचार होता है कि अगर यह दिखने लगे तो वश में करके इनका कार्य करूँगा ।

यह मोल भाव नहीं तो क्या है ?

                                          अगर महामाया की कृपा से अगर शक्तियों का संयोग मिले तो उसका मोल भाव क्यों ? महामाया की कृपा से प्राप्त शक्तियों को साध कर स्वः आगे बढ़ना होता है नाकि दूकान खोल कर बैठना । साधना को व्यवसाय बना कर क्या पाओगे ?

                                      साधना के व्यवसायीकरण में साधक अपनी गुप्त साधनाओ एवम् साधन का खुले आम से प्रचार कर ग्राहक जुटाते हैं । अब इसमें कौन गुरु हैं कौन गुरु घंटाल यह तो महामाया ही जाने ।
अति सुलभ रूप से मिलने वाले गुरु क्या किस प्रपंच से साधक रुपी ग्राहक शिष्य जुगाड़ेंगे और ग्राहक को क्या मिलेगा यह सोचने का विषय है ।

अलख आदेश ।।।

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