Tuesday, 10 February 2015

आध्यात्म और मन का बंधन

                                ॐ सत नमो आदेश श्रीनाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश


जब हम अपने मानसिक एवं शारीरिक इक्षाओं का दमन नहीं कर पाते तो इष्ट के दर्शन एवं प्रेम को समझने के लिए प्राप्त सन्देश को कैसे समझ पायेंगे ?
 

                                 मनुष्य मन एवं शरीर सुलाभता की ओर अत्यधिक गति से आकर्षित होता है ।सुलभता शरीर को निर्बल बनाती है मन को सूक्ष्म ।अपने मन के वशीभूत हम धारणाएं स्वयं बनाते हैं । और उन धारणाओं के पीछे बदहवास की तरह भागते रहते हैं ।
                             जब तक एक अघोर साधक अपने शरीर और मानसिक इक्षाओं का दमन करके इष्ट की ओर अग्रसर नहीं होगा तब तक दर्शन या अनुभूति से काफी दूर रह जाते हैं ।साधक की इक्षाएं एवं आकांक्षा अगर उन्मुक्त हो जाए तो अति विशाल रूप धर लेती हैं ।अगर साधक को कुछ काल या दिन की साधना मिले और उस साधना में सख्त निर्देश मिले जैसे ब्रम्हचर्य का पालन या वार्तालाप से से मनाही । कुछ साधकों का व्यवहार उन दिनों ऐसा होता है जैसे किसी कारागार में बंद कर दिया गया है और इस कारागार और अवधि से बहार आने को छटपटाने लगते हैं ।
                         साधना का अर्थ साधन एवं इष्ट में खो जाना है । अगर साधना करते समय भी अगर मन बंदिशों की ओर सोचता रहे तो मनसा और वाचा से कार्य तो कर लिया बस कर्मना ही रह गया । ऐसे में साधना क्या हुई वो तो साधक और महामाया ही जाने ।
अलख आदेश ।।।

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