ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश
अघोर साधक ना ही सम्मान की इक्षा रखते हैं और ना ही अपमान के भय से व्यथित होते हैं । ना किसी से मोह का बंधन ना उनके जाने का दुःख ।मंदिर में घंटा आने वाले भी बजाते हैं और जाने वाले भी । आते समय बजाओ या जाते समय मंदिर में बैठे देव को क्या फर्क पड़ता है ?कृपा दृष्टि तो हर समय है अन्यथा कभी नहीं है । कुछ साधक कहते हैं मैं गुरु
जी के इतने निकट हूँ । मैंने गुरूजी के लिए इतना कुछ किया है । मैंने इतनी
सेवा की है । मैंने उनकी सहूलियत के लिए इतना दान किया है ।
पर क्या अघोर को आपने बिना स्वार्थ के प्रेम किया है ? क्या बिना इक्षा के सामने बैठ कोई कार्य किया है ? कई लोग कहेंगे मैंने किया है । पर क्या मनसा – वाचा – कर्म से बिना स्वार्थ के किया ?अगर किया है तो आपको मिला है । अन्यथा स्वार्थ पूर्ण क्रिया कलाप में जो मिला उसी में संतोष करो ।
कुछ साधक अपने समझ से प्राप्त ज्ञान को सर्वोपरि मान उसी में लिप्त होकर दूसरों को सही गलत बताने लगते हैं । बस अपने ज्ञान को ठोस कवच में बंद करके उसके आगे का कोई ज्ञान नहीं लेना चाहते । ज्ञान प्राप्ति के बाद भी ग्रहण मुद्रा में बैठ कर सुनना और समझना सही अघोर साधक का कर्त्तव्य है ।अपने ज्ञान को सर्वोपरि मानने वाले साधक “अधभर गगरी छलकत जाए” का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । गुरु भी उनकी परीक्षा लेने में कोई कसर नहीं छोड़ते । हर क्षण एक परीक्षा होती है । हर संवाद में परीक्षा का संयोजन है ।
किसी शिष्य के वचन जिसमे गुरु उनसे अत्यधिक प्रेम करते हैं और उनके बिना कुछ नहीं करेंगे ऐसा उनकी अज्ञानता को दर्शाता है । प्रिय से प्रिय शिष्य की परीक्षा उतनी ही कठिन होती है । और अघोर तो चले अकेला । ना किसी शिष्य के प्रेम का बंधन उसे बांध सकता है ना ही कोई शिष्य उन्हें मोहित कर सकता है ।
पर क्या अघोर को आपने बिना स्वार्थ के प्रेम किया है ? क्या बिना इक्षा के सामने बैठ कोई कार्य किया है ? कई लोग कहेंगे मैंने किया है । पर क्या मनसा – वाचा – कर्म से बिना स्वार्थ के किया ?अगर किया है तो आपको मिला है । अन्यथा स्वार्थ पूर्ण क्रिया कलाप में जो मिला उसी में संतोष करो ।
कुछ साधक अपने समझ से प्राप्त ज्ञान को सर्वोपरि मान उसी में लिप्त होकर दूसरों को सही गलत बताने लगते हैं । बस अपने ज्ञान को ठोस कवच में बंद करके उसके आगे का कोई ज्ञान नहीं लेना चाहते । ज्ञान प्राप्ति के बाद भी ग्रहण मुद्रा में बैठ कर सुनना और समझना सही अघोर साधक का कर्त्तव्य है ।अपने ज्ञान को सर्वोपरि मानने वाले साधक “अधभर गगरी छलकत जाए” का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । गुरु भी उनकी परीक्षा लेने में कोई कसर नहीं छोड़ते । हर क्षण एक परीक्षा होती है । हर संवाद में परीक्षा का संयोजन है ।
किसी शिष्य के वचन जिसमे गुरु उनसे अत्यधिक प्रेम करते हैं और उनके बिना कुछ नहीं करेंगे ऐसा उनकी अज्ञानता को दर्शाता है । प्रिय से प्रिय शिष्य की परीक्षा उतनी ही कठिन होती है । और अघोर तो चले अकेला । ना किसी शिष्य के प्रेम का बंधन उसे बांध सकता है ना ही कोई शिष्य उन्हें मोहित कर सकता है ।
अलख आदेश ।।।
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