Friday, 27 February 2015

औघड़ वाणी

औघड़ वाणी:  अगर संन्यास के बाद भी भौतिक मोह व्याप्त है और सांसारिक प्रतिष्ठा की भूख है तो संन्यास का कोई मायने नहीं है । हर साधक के कर्म पूर्व निर्देशित होते हैं । दिखावे का चोला और दिखावे का संन्यास क्षणिक है ।
कुछ सन्यासी कहते हैं अकेले में क्या किया जाए ?
अकेलापन और संसार से दूर अगर रहने का निर्णय कर संन्यास लिया गया है तो मन को संयमित कर बाँध कर अगर इष्ट में रमन करना प्रमुख है । अन्यथा समाधी के बाद भी आत्मा इसी चक्कर में भटकती रहेगी ।

अलख आदेश ।।।

Sunday, 22 February 2015

अघोर और सांसारिक

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                                            अघोर से सांसारिक अपने सांसारिक सोच को समक्ष रख कर बाते करते हैं । कभी कोई साधक कहता है बंधन निवारण मन्त्र या विधि बता दो । कोई यंत्र उत्कीलन । कोई कहता है मन्त्र कैसे जागृत करते हैं यह बता दो । प्रेमी को सम्मोहन करने का मन्त्र बता दो । प्रेमिका को वश में करने का मन्त्र या उपाय बता दो । धन प्राप्ति का उपाय बता दो ।
                                              जब अघोर विधि से सोचता हूँ तो इतने मन्त्र अघोर तो याद रखते ही नहीं । जिस प्रकार आदेश हुआ या शक्तियों का सन्देश हुआ कार्य कर लेते हैं । अघोर के सारे क्रिया कलाप उलटे एवं साधारण विधि विधान से अलग होते हैं ।
                                           किसी देव को भोग देने की बात हुई खुद खा लिया । हवन में मदिरा पी के दाल दी । कहा ले लो भोग । कलवा को भोग देने की बात हुई अपने शिष्य को खिला दिया , शिष्य को भोग का असर भी नहीं हुआ और कलवा खुश हो गया । अलग अलग भाव अलग अलग प्रयोग । ऐसे प्रयोग कर पाने के लिए मन के भाव सम एवं स्वयं सक्षम होना होता है ।
                                      मुख्य यह है कि सांसारिक इन बातों को कैसे समझे । जब सांसारिक अघोर के पास समस्या लेकर आये तो पूर्ण श्रद्धा और समर्पण लेकर आये । दुविधा और दोहरी मानसिकता में अघोर के पास आओगे तो खुद परेशान होगे और अघोर के क्रोध भाव को भी झेलना पड़ेगा ।
                                   अघोर के प्रयोग शक्तियों द्वारा प्रेरित होते हैं ऐसे में अघोर के पास गए सांसारिक के बाधा निराकरण हेतु अलग अलग आदेश प्राप्त होते हैं । जिसमे कभी दुर्लभ वस्तुओं का प्रयोग निहित होता है कभी हवन ।अब उस प्रयोग में होने वाली विशिष्ट वस्तुओं को अघोर कहा से लेकर आएगा । ना धन का संग्रह करता है ना ही वस्तुओं का । ऐसे में वस्तु कौन लेकर आएगा ? या विशिष्ट हवन में धन कहा से लाएगा । किसी व्यथित सांसारिक का काम छोटे प्रयोग से हो जाता है किसी का बड़े कार्य के बाद ही संपन्न होता है ।
                                     सांसारिक को लगता है अघोर पैसे लेता है । कभी अघोर को महल में रहते देखा? कभी अघोर को मसान से बाहर रहते देखा ? मसान में धन से अघोर क्या करेगा ?
                                 अघोर ना ही कभी किसी किए सम्बन्ध तोड़ने का कार्य करेंगे ना ही वश में कर कोई कार्य कराने का । ऐसे में कुछ सीधा बोलते हैं पाखंडी हो नहीं हो तो काम करो मेरा । एक ने तो लिखा नफरत करती हूँ आप लोगों से । आप सब पैसे लेते हो । नहीं लेते तो मेरा प्रेमी जो मेरा फायदा उठा रहा है उसे वापस ला दो शादी करा दो ।अलग अलग बहाने अलग अलग मानसिकता । ऐसे में अघोर उनका स्वागत तो नहीं कर सकता । ना ही अघोर के संग रहने वाली शक्ति उससे प्रसन्न रहेगी ।
क्रोध भाव तो झेलना पड़ेगा ही ।।
अलख आदेश ।।।

अघोर वार्ता

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                           अघोर साधकों से बात करते समय संयम आवशक है । कई ऐसे महानुभाव हैं जो अघोर के निष्ठुर बर्ताव को नहीं समझ कर उनके विरुद्ध में बोलना शुरू कर देते हैं । अभी हाल में एक महानुभाव “मनु मेहता” महाशय ने कहा अगर शक्तियों का दम है तो सट्टे का नंबर बताओ , समझाने के प्रयास पे शुरू हो गए गाली गलौच करने । कुछ ऐसे भी हैं की मिलने आये और शुरू हो गए अपना पिटारा लेकर ये कर दो वो कर दो, ऐसा हुआ है वैसे कर दो वैसे हुआ तो ऐसे कर दो ।
                       इस बात से बेखबर होकर की एक अघोर साधक के कर्म, वाणी और सोच बस इष्ट के अनुसार ही चलते हैं । एक अघोर साधक खुद को बड़ा नहीं बताता है , अघोर साधक के सारे कर्म इष्ट के नियम और आदेश के अनुसार ही होते हैं ।अब शक्तियां हैं तो क्या सट्टे का नंबर पता करवाएं? या किसी प्रेमी प्रेमिका को मिलाने चल दें ?
                  सांसारिक एवं भौतिक प्राप्ति से अघोर को क्या लेना देना । उसे जो चाहिए वो तो वो पा ही लेगा । आवश्यक है आप क्या पाना चाहते हैं एक अघोर से ? स्वयं सक्षम बनना या सांसारिक सुख प्राप्त करना जो अत्यंत ही सूक्ष्म है । क्षण भंगुर तत्व की प्राप्ति तो आपके मृतप्राय देह के सामर्थ्य से संभव है । सांसारिक और भौतिक प्राप्ति से प्रमुख है स्वः को सक्षम बनाना ।
               सांसारिक उपलब्धि किस क्षण समाप्त हो जाए किसी को नहीं पता होता है । पर आध्यात्मिक उपलब्धि जन्मो जन्मो तक साथ चलती है । ऐसे बस कहना नहीं अटल सत्य है । आप के ज्ञान से अर्जित धन कुछ समय तक ही चल सकता है पर ज्ञान मृत्योपरांत भी आपसे जुड़ा रहता है ।
             प्रमुख है की स्वः सक्षम बने, इष्ट पर पूर्ण विश्वास और निःस्वार्थ प्रेम करें । इष्ट का स्वरुप एक माता के सामान होता है । जिसे अपने पुत्र के बोलने और सोचने से पहले पता होता है की पुत्र को क्या चाहिए । ऐसे में या तो आपके चाहने से पूर्व मातृ स्वरुप इष्ट सारी इक्षाएं पूर्ण कर देती है ।
            अब आप यह सोचो क्या बस जो शीघ्र लक्ष्य प्राप्त करना है या पूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति चाहिए क्षणिक इक्षा पूर्ण करनी है या सर्वोच्य इक्षा को पूर्ण करना है ?अघोर के पास जाओ तो आशीर्वाद मांगो, क्षमता मांगो, और इष्ट दर्शन की कामना करो । सांसारिक एवं क्षणिक वस्तुए मांगोगे तो वो अघोर को क्षण में क्रोधित करेगा । और कोप का भागी होना पड़ेगा ।
अलख आदेश ।।।

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एक प्रार्थना सद्गुरुदेव से

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


एक प्रार्थना सद्गुरुदेव से -

हे सद्गुरुदेव हे मेरे जीवन के आधार
मेरे शरीर की आत्मा मेरे प्राणों के प्राणधार
मुझपे एक नजर कर दो
कुछ ऐसा अद्भुत असर कर दो
ना दिखे कोई जीव ना इंसान
बस दिखे आपका ही प्रकाश
जहा जाऊं बस आपको ही पाउ
जब ना दिखो आप तो संसार त्यागूँ
बस आपका चरण ही है मेरा संसार
हे सद्गुरुदेव बस इतना कर दो उपकार
ना दिखे मुझे आपके बिना कोई संसार
अलख आदेश ।।।
–मेहुल मकवाना
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सनातन धर्म की विडम्बना

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                                           क्या यही सनातन समाज है । जहां इष्ट की पूजा में चमत्कार का कोई स्थान नहीं था । और आज चमत्कार दिखाने वाले को भगवान् बना दिया जाता है । इष्ट का कोई महत्त्व नहीं है ? चमत्कार दिखा अनुयायी बन गए और लड़ने लगे उनके नाम पर । अपने गुरु को सबसे ऊपर दिखाने के क्रम में अंध श्रद्धा को बढ़ावा देते लोग । ज्ञान की क्या यही सनातन समाज है । जहां इष्ट की पूजा में चमत्कार का कोई स्थान नहीं था । और आज चमत्कार दिखाने वाले को भगवान् बना दिया जाता है । इष्ट का कोई महत्त्व नहीं है ? चमत्कार दिखा अनुयायी बन गए और लड़ने लगे उनके नाम पर । अपने गुरु को सबसे ऊपर दिखाने के क्रम में अंध श्रद्धा को बढ़ावा देते लोग । ज्ञान की बाते सुन के या पढ़ के ख़ुशी ख़ुशी प्रवचन करते गया लोग एवं स्वः में कुछ भी आत्मसात ना करते लोग । कहाँ गया हमारा सनातन धर्म । हर समय सनातन धर्म का डंका बजाते लोग । सनातन धर्म सबसे ऊपर बताते और कार्य तुच्छता का करते लोग ।बाते सुन के या पढ़ के ख़ुशी ख़ुशी प्रवचन करते गया लोग एवं स्वः में कुछ भी आत्मसात ना करते लोग । कहाँ गया हमारा सनातन धर्म । हर समय सनातन धर्म का डंका बजाते लोग । सनातन धर्म सबसे ऊपर बताते और कार्य तुच्छता का करते लोग ।

अघोर पंथ

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


क्या अघोर पंथ खतरों से भरा हुआ है?
                                      हाँ अघोर पंथ खतरों तथा अप्राकृतिक अनुभूतियों से भरा हुआ है ।  इस पंथ के साधक अक्सर विपरीत बुद्धि के होते हैं । जब मन में आया माँ को प्रेम किया कभी बेताली बोल दिया कभी पिशाचिनी बोल दिया । पर प्रेम ह्रदय से करते हैं । ना कोई छल ना कपट ना ही कोई इर्ष्य रखते हैं ।  साधारणतः साधक की इक्षा होती है माँ सौम्य रूप में दर्शन दे । पर अघोर पंथ के साधक माँ को प्रचंड रूप में ध्यान करते हैं । प्रचंड रूप की साधना में प्रचंड अनुभूति एवं अद्भुत विपरीत अनुभूति होती है ।
 
अघोर पंथ के साधक महामाया तथा महाकाल में रमे हुए होते हैं ।
 
                                अघोर पंथ की परीक्षा भी कठिन होती है । जो साधक परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ वो सब कुछ पाया अन्यथा सब कुछ त्याग कर भूल गया ।अघोर उन साधकों के लिए कदापि नहीं है जो भय में साधना करते हैं । भैरव की साधना करते समय भय दूर करने के लिए हनुमान जी की फोटो जेब में रखते हैं कि अगर कोई भूत प्रेत आया तो हनुमान जी रक्षा करेंगे ।
                        रक्षा तो अवश्य होगी पर प्रेत राज क्रोधेश स्वयं रक्षा कर लेंगे । कुछ पाना है तो कुछ परेशानियों से गुजरना भी पड़ेगा ।आग का दरिया है डूब के जाना है।इस दरिया में डूबना तो है बस डूब जाना है। उस पार वही लगायेंगे । अगर खुद कोशिश की निकलने की तो प्रभु बैठ कर मुस्कुराएंगे  ।
अलख आदेश ।।।

अघोर सूत्र

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


काला निकाल कर लाल डालो
अंजरी बजरी सब खा लो
चार उंगल थी आठ उंगल फटी
तब नाथो के आगे नाठी ।।
अघोर साधक के लिए ये चार पंक्ति अति मूल्यवान हैं । साधना में अग्रसर होते हुए साधक के कर्तव्य अति तीक्ष्ण हो जाते हैं । थोडा स ध्यान भटका और बदनामी के गर्त में गिरे । कलिकाल के दौर में साधकों का मक्खन लगाने वाले संसारिकों से दूर रहना अति कठिन है । ऐसे कई गृहस्त साधक हैं जिनका प्रयास संसारिक प्रपंच से दूर रहना होता है ।
                                  परंतु कलिकाल के गर्त में सन्यासी साधक को भी सांसारिक मोह माया बांध लेती है । ऐसे में साधक क्या करे?
                            काले का अर्थ संसार के सभी विकार हैं और लाल पूण्य के घोतक । साधक के लिए आवश्यक है संसार में आने वाली हर चीजों को स्वीकारे चाहे वो भोज्य हो या अभोज्य, स्वीकार करने योग्य हो या नहीं । स्वीकार वो सबको करे पर जो ग्रहण के योग्य हो बस उसी को ग्रहण करे ।संसार में हैं तो संसार से विमुख होना आवश्यक नहीं है । संसार में मोह भी है माया भी है । लोभ भी है क्षोभ भी है । इन सबके साथ रह कर भी इनमे ना फसना साधक का कर्त्तव्य है । कमल के पत्ते पर जल की बूँद के सामान । कीचड में रहकर भी सुंदरता । यही साधक के लक्षण हैं ।
                                 साधना पथ से विचलित ना होना । समय के उंच नीच में सामान रहना ।साधारण मनुष्य चार आयाम तक सोच या देख सकते हैं । जब साधक सहज भाव से साधना में अग्रसर होता है तब उसके अष्ट आयामी दृष्टि कोण उसे महादेव प्रभु श्री आदिनाथ के सामने खड़ा करते हैं ।
                           अगर सांसारिकता के मोह ऐवम मायाजाल में फसे तो बस यहाँ की सुलभता पर ऐश कर सकते हैं और वाह वाही लूट सकते हैं । पर यह मनोरंजन और वाह वाही और सुलभता पल पल आपको वापस संसार में खींच रही होती है । शब्दों में ना कह पाएं और शब्दों को बदलने से मन के भाव नहीं बदल पाते । सांसारिक किसी महानुभाव के शब्दों की जयजयकार करते हैं । पर मन और कर्म के भाव की प्रमुखता महादेव के सामने खुल कर आती है ।
                             अपने कार्यों को संतुलित करें और मन के भाव को साधना पथ पर रखें । शब्दों का सूक्ष्मता से चयन करें । अन्यथा महामाया का अधो त्रिकोण रुपी परीक्षा तल इसी संसार के कर्मों में बाँध देगा ।।
अलख आदेश ।।।


Sunday, 15 February 2015

औघड़ वाणी

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


औघड़ वाणी: जब एक साधक मैं , मेरा , मुझसे और मैंने को आत्मा तथा सर्व रूप से त्याग कर बस महामाया के द्वारा, महामाया ने , महामाया का एवं बस महामाया को आत्मसात कर लेता है तब वह सबको सम भाव से देखता हुआ महामाया के प्रेम का पात्र बन जाता है ।
अन्यथा कई लोग के वचन होते हैं मैं यह कर सकता हूँ वो कर सकता हूँ । पर करने और कराने वाली तो बस वही महामाया है ।
अलख आदेश ।।।
http://aadeshnathji.com/aughad-wani1/ 

औघड़ वाणी

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


औघड़ वाणी : संतो की प्रवृति सम होती है । कोई शत्रु नहीं होता । शत्रुता के लिए कोई स्थान नहीं होता। मनुष्य ही बस कृपा पात्र नही होते । अपितु पशु पक्षी जीव सभी से प्रेम होता है ।
संतो की पहचान बस भगवे से या तिलक से नहीं होती ।
संत सान्निध्य में श्वान मुस्कुराते हैं । गाय सर झुका देती हैं । पक्षी उनके पास आ चह चहाते हैं ।
मूसक उनके ऊपर कूदते हैं । नाग बिना फुन्फ्कारे देखते रहते हैं । जो खाते हैं सबको देते हैं । स्थान की पवित्रता अपवित्रता का भान नहीं होता।
इसलिए कहते हैं संत विरले ही मिलते हैं और संत सान्निध्य कृपा से ही मिलता है ।
“अब मोहि बा भरोस हनुमंता बिनु हरी कृपा मिलही नहीं संता”
अलख आदेश ।।।
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सृष्टि एक भ्रम

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश

                                 श्रृष्टि की रचना का उद्देश्य क्या है यह तो ज्ञात नहीं । पर अगर तर्कानुसार सोचता हूँ तो कभी ऐसा प्रतीत होता है जैसे महाकाल महादेव एक ऐसे मनुष्य जिन्होंने परम अवस्था को सर्वप्रथम प्राप्त कर लिया । परम अवस्था को प्राप्त देव स्वरूपी परब्रम्ह हो गए समयानुसार दर्शन दे कर सबको ज्ञान और भक्ति का मार्ग दर्शन दिया ।
                              कभी लगता है कि हम सब महामाया और महादेव के क्रीडा स्थल पर खेल रहे हैं । जैसे umpier के हाथ ने points देने की क्षमता हो । बस उनका खेल हम खेलें और जिसका खेल उत्तम लगा उसे points मिल गए । नियम भी उन्ही के खेल भी उन्ही का कानून भी उन्ही के । हम खेल में तल्लीन हो खेले जा रहे हैं ।
सब कुछ महामाया के हाथ में कैसे है यह तो स्वयं किसी भी कार्य में समझ सकते हैं । आप कोई भी कार्य करें पर अंत में क्या फल होगा यह भी नहीं पता होता । क्या पता काम ही ना बने । क्या पता काम रुक जाये और क्या पता सोची समझी हुई कार्य प्रणाली काम ही ना करे ।
                                 पर जहाँ तक मुझे लगता है भगवान् का एक रूप हमारे अंदर भी है । जिसे जागृत करने से अपनी इक्षा के अनुसार कार्य किया जा सकता है । जब स्वयं का ब्रम्ह जागृत हो जाये तो महामाया भी उस कार्य में बाधा नहीं उत्पन्न कर पाती है । अन्यथा रावन सबसे महान था । उसे भूत भविष्य और वर्तमान ज्ञात था तो दंभ क्यों करता और मृत्यु को प्राप्त करता । शास्त्रों में भी कहा गया है स्वयं के ब्रम्ह को जागृत करो ।
इसिलए शास्त्रों में स्वयं को जागृत करने और नियंत्रित करने की बात कही गयी है । कार्य करो पर स्वयं को ब्रम्ह बना कर साधारण मनुष्य की तरह ही रहो । विदेह होने की उत्तम प्रणाली है ।
अलख ।।।

साधक और प्रेमी

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

साधक और प्रेमी में अधिक अंतर नहीं होता
साधक माँ से बात करते हुए जगता प्रेमी प्रेमिका से बात करते हुए ।
साधक माँ के रूप को सोचता रहता है प्रेमी प्रेमिका के चित्र को ।
साधक रात्रि जागरण माँ के लिए करता है प्रेमी प्रेमिका को प्रसन्न करने के लिए ।
साधक स्वयं को जानने के लिए तत्पर होता है प्रेमी प्रेमिका के प्रेम के लिए ।
अंतर दोनों में बस क्षण भंगुर और परम की प्राप्ति की होता है ।
प्रेमी मिटटी स्वरुप देह को पाकर खुश होता है साधक परम तत्त्व की प्राप्ति कर प्रसन्न रहता है ।
अलख आदेश ।।।

http://aadeshnathji.com/sadhak-aur-premi/ 

औघड़ वाणी

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


औघड़ वाणी : मनुष्य किसी साधक में एक अलोकिक प्रकाश देखते हैं । प्रकाश पुंज को खोजते हुए जब प्रकाश पुंज की ओर अग्रसर होते हैं । जब प्रकाश की ओर बढ़ते हैं । तब प्रकाश पुंज तेज होता जाता है संग में उस प्रकाश की ऊष्मा भी तेज होती है । शरीर का तेज एवं ऊष्मा में भी वृद्धि होती है । जब प्रकाश पुंज के निकट होते हैं तब शरीर से भी तेज निकलता है ऊष्मा निकलती है प्रकाश निकलता है । अगर साधक उस समय इस भान में रहे कि तेज, ऊष्मा या प्रकाश उससे प्रवाहित हो रहा है तो भटक जाता है ।
इस बात को भूल जाता है कि प्रकाश परम पुंज से निकल कर उससे मात्र प्रवाहित हो रहा है। कुछ साधक प्रकाश पुंज तक पहुँचने से पहले ही बैठ कर अपने आप को परम समझने लगते हैं ।
अपितु परम तो कुछ और दूरी पर है ।
जो साधक परम तक पंहुचा और परम प्रकाश पुंज में समाहित हो गया वह उसी में लीन हो गया ।
अलख आदेश ।।।

http://aadeshnathji.com/aughad-waani4/ 

प्रभु श्री आदेश नाथ जी के अनुपम वचन

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश

मेरे गुरुदेव प्रभु श्री आदेश नाथ जी के अनुपम वचन :
                                   सत युग, त्रेता युग और द्वापर युग में एक अच्छी बात थी कि उस समय मनुष्य , देव एवं दानव की वेश भूषा , वार्ता , रहन सहन अलग थी ।देव सुन्दर स्वच्छ आभूषण युक्त एवं संस्कृत बोलते थे । सभी से प्रेम तथा कृपा करते थे । देव सत्कर्म में लीन रहते थे ।मनुष्य साधारण क्रियाकलापों को करते और हिंदी बोलते थे । सांसारिक कृत्य कर परमेश्वर की उपासना करते थे ।
                                दानव गंदे एवं मांस मदिरा पी कर उद्धम मचाते थे । अपशब्द बोलते थे । मनुष्य तथा देवों को परेशान करते थे।जब कलिकाल का पदार्पण हुआ तब सब एक सम हो गए । सबकी वेश भूषा व्यवहार तथा वार्ता एक सामान हो गयी । अंतर कर पाना मुश्किल हो गया ।सब एक साथ रहने लगे । देव मनुष्य और दानव के भाव ही इस पृथ्वी पर रह गए ।
                                 पर मनुष्य की बुद्धि जीवित है । देव मनुष्य और दानव में भेद उनके कार्य कलापों से ज्ञात किया जा सकता है । पर व्यवहार तथा भेद जानने के लिए थोडा परिश्रम करना पड़ेगा । भाव तथा क्रिया कलापों से ही जाना जा सकता है कि कौन देव है कौन मनुष्य और कौन दानव ।
जय गुरुदेव ।।। श्री नाथ जी गुरु जी को आदेश आदेश आदेश ।।
अलख आदेश ।।।

श्री रमेश भाई ओझा के अनुपम शब्द


                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


पूज्य श्री रमेश भाई ओझा के अनुपम शब्द :
                                         एक कारागार में राष्ट्रपति महोदय निरिक्षण करने गए । सभी कैदियों से उनकी व्यथा पूछी । किसी ने कहा दीवाल पुतवा दो । किसी ने कम्बल की मांग की । किसी ने लेखन सामग्री की मांग की । पर किसी चतुर कैदी ने प्रार्थना की “यहाँ से निकाल दो अब ऐसी गलती दुबारा नहीं करूँगा । सभ्य नागरिक की तरह जीवन निर्वाह करूँगा । ” उसे कारागार से मुक्ति मिल गयी ।
                                         हम सांसारिक भी ऐसा ही कुछ करते हैं । जब इश्वर के सामने आते हैं तो घर , संसार, क्षणिक सुख के लिए अरज लगाते हैं । जब परम परमेश्वर सब कुछ देने के भाव में आते हैं तो क्षणिक सुख सुविधा मांग कर अपनी इक्षा को छोटा कर लेते हैं । जब माँगना है तो कुछ ऐसा मांगे जो जीवन सफल बना दे । जीवन के बाद का जीवन सुखमय बन जाए । प्रसन्नता कुछ समय के लिए हो तो क्या लाभ ।
अलख आदेश ।।।

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औघड़ वाणी

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                                औघड़ वाणी : इक साधक का जीवन अति कठिन होता है । वाणी , रहन सहन , भाव – भंगिमा , जीवन शैली आदर्शों के एक पतली सी रस्सी पर चलने के समान होता है । इसी पर चलते जाना है जब तक स्वयं महामाया अपनी गोद में ना उठा ले । जब तक स्व से परम ना बन जाएँ ।
                               अन्यथा थोड़ी सी भी चूक बदनामी के अँधेरी घाटी में गिरा देता है । ऐसा बस साधक के संग नहीं होता अपितु वह अपने आराध्य एवं पंथ की छवि को भी ठेस पहुचाता है । तथा श्रद्धा रखने वाले शिष्य एवं मनुष्य की श्रद्धा को भी हानि पहुचाता है । अतः साधना पथ पर उन्नति प्राप्त कर चुके साधक की वाणी और कर्म सम भाव में ना हों तो उसके संग इष्ट , मनुष्य की श्रद्धा एवं भक्ति भी हानि सहन करती है ।
अलख आदेश ।।।

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महाकाली प्रचंड है पर राक्षसी नहीं

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                                     महामाया महाकाली प्रचंड है पर राक्षसी नहीं । भैरव क्रोधेश हैं भूतपति हैं पर शैतान या राक्षस नहीं हैं । आज कल हिन्दू धर्म के पतन के लिए चित्रकार रुपी महानुभावों ने अजीब अजीब चित्रें बना कर सबके सामने प्रस्तुत कर दी हैं । जिन लोगों को सत्यता का भान नहीं वो उन्ही चित्रों के माध्यम से मात्रि स्वरूपी महामाया की विपरीत रूप वाली छवि की साधना करते हैं या भयभीत हो सभी को भयभीत कराते हैं ।
                                    महामाया का प्रचंड रूप अपनी संतान की रक्षा करने के लिए होता है । इस संसार में भी अगर आप किसी स्त्री की संतान को हानि करने की कोशिश करते हैं । एक अबला स्त्री प्रचंड रूप लेकर अहित करने वाले शक्तिशाली पुरुष से भी लड़ जाती है । किसी भी मात्रि स्वरुप चाहे वो श्वान प्रजाति की हो या बन्दर प्रजाति की । हर रूप में माँ अपने संतानों के लिए प्रचंड भाव रक्षा हेतु रखती है ।
                                        महामाया के हस्त कमलों में अस्त्र शस्त्र हैं पर वे सभी सुप्तावस्था में होते हैं । माँ के हाथों ने वर एवं अभय का भाव सर्वोपरी है । जिससे माँ अपने अभय मुद्रा से गोद में उठा वर मुद्रा हस्त से अपने संतान एवं अंश के सर में हाथ फेरती हैं । और मनुष्य के शत्रु (क्रोध , मोह, क्षोभ इत्यादि) को अपने शस्त्रो से काट देती हैं । माँ के अति प्रचंड रुपी स्वरुप में अभय और वर मुद्रा स्पष्ट रूप से दिखता है । जिनको माँ की आखों में डर की अनुभूति होती है । वो उग्र रूप में प्रचंड हुई स्त्री के आँखों का स्मरण कर लें । उस स्त्री की आँखें भी रक्तिम एवं क्रोध से परिपूर्ण होती हैं । प्रचंड रुपी स्वरुप में अगर माँ के मुख को देखा जाये तो माँ हसती हुई प्रतीत होती है जो सभी प्रकार के डर भय के भाव को नष्ट करने की क्षमता रखता है ।
अलख आदेश ।।।

आत्मा – शरीर


                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश



                                      एक आत्मा शरीर त्यागने के बाद शारीरिक मोह माया बंधन एवं इक्षा से निवृत नहीं हो पाती ।ऐसी बंधन युक्त आत्माएं प्रेत , भूत, राक्षस, एवं पिशाच का रूप अपनी आकाँक्षाओं के अनुसार करती हैं । एक अघोर साधक इनका उपासक नहीं होता । मसान में साधना कर रहे अघोरी के पास आत्माएं आकर अपने मुक्ति का आग्रह करती हैं । अघोर महामाया के निर्देशानुसार उन आत्माओं से इक्षित कार्य करवा उसके बन्धनों से मुक्त कर उसे मुक्ति प्रदान करवाता है ।
                                       अघोर प्रेतों और भूतो को वश में नहीं करके रखता और ना ही सांसारिक उपलब्धियों के लिए इस्तेमाल करता है । आग्रह कर रही आत्माएं अपनी इक्षा के अनुसार साधक के साधन की पूर्ति करती हैं । अघोर प्रेतों से कोई वचन की अपेक्षा नहीं रखता है । जब अघोर स्वयं भैरव से प्रत्यक्ष वार्ता कर सके तो भूत प्रेतसे क्या मिन्नत करे ।
अलख आदेश ।।।

Saturday, 14 February 2015

औघड़ वाणी

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

                                          मनुष्य अपने क्रिया कलापों को कितना भी बढा चढ़ा कर या महिमा मंडन कर दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दे । चाहे कितनी भी प्रसिद्दि पा ले । पर आत्म रूपी आत्मा से कभी मिथ्या नहीं कह सकता । स्वयं की आत्मा रुपी परम अंश को मनुष्य की हर गति विधि का ज्ञान होता है । पर कुछ ऐसे महानुभाव जो मिथ्या में पूर्णतः लिप्त हैं वो स्वयं को भी झूठ बोल कर भ्रमित कर देते हैं । ऐसे में भ्रमित और उत्कंठित आत्मा अंत में मृत्यु शय्या पर इन सबका बोध कराती है ।
अलख आदेश ।।।

Friday, 13 February 2015

अघोर साधक

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                                        सच्चा साधक एक स्वर्ण के पिंड के सामान होता है । जिसे गुरु खोज कर पात्र बनाते हैं । जिसमे गुरु उसे तपाते हैं पीटते हैं । पात्र के रूप में ढाल देते हैं । उस पात्र में अपन ज्ञान का अमृत उड़ेल देते हैं । पर उस पात्र की साफ़ सफाई और रख रखाव साधक के हाथ में होता है । साफ़ करके गन्दगी हटा देना आसान है पर कठिन है उसको चमकाना ।चमकाने की प्रक्रिया कठिन परिश्रम और लगन से पूर्ण होती है । अंत में चमकता हुआ पात्र श्रद्धा का विषय बन जाता है ।
                                अक्सर सब कहते हैं जब संतो के संग होता हूँ मन शुद्ध है और जब संसार में आता हूँ सारी बातें भूल कर संसारिकता में लिप्त हो जाता हूँ । ऐसे में ज्ञान को आत्मसात करने की क्षमता की कमी दर्शाती है । संत यह नहीं कहते कि संसार में संत बनके दिखाओ । संत के ज्ञान को आत्मसात कर अपने क्रिया कलापों में निवेशित करो ।क्रोध लोभ मोह माया तो अवश्यम्भावी है पर उनको दूसरी दिशा में भटकना होगा । इसके उपरान्त जनित भाव स्वयं ही उस दिशा में भटक जायेगा ।
अलख आदेश ।।।

क्षोभ और संसार

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

                                  क्षोभ शायद मनुष्य जीवन का हिस्सा बन गया है । सांसारिक को संसार में रहने का क्षोभ , मनुष्य को मनुष्य योनि में आने का क्षोभ , सन्यासी को संन्यास में होने का क्षोभ , पुत्र को पिता से क्षोभ , पिता को पुत्र से क्षोभ । जो मिला उससे क्षोभ जो ना मिला उसका क्षोभ ।
                                  हे साधक जो मिला उससे प्रसन्न रहो । जैसे मिला या मिलेगा वह महामाया का प्रसाद है । प्रसाद समझ के ग्रहण करो । प्रसाद हमेशा सर्वोत्तम ही होता है । बहाने न खोजो कि यह ऐसे ख़राब है वो वैसे ख़राब है । शरीर है तो शरीर से प्रेम करो त्याग कर परम बनने की चाह में इस शरीर को निरर्थक ना समझो । मात्रि कष्ट के चरम सीमा से प्राप्त हुए इस शरीर से ही यह ज्ञान, बात करने और सोचने की क्षमता प्राप्त हुई है । महामाया के परम रूप को जानने का अवसर मिला है । तो अब इससे ही घृणा क्यों?
                               जब तक है प्रेम करो और विदेह बनने का प्रयास करो । जब शरीर से आत्मा का प्रस्थान हो जायेगा तो परम बनने का प्रयास करना । शायद क्षोभ में ही क्षोभ को परिभाषित किया जा सकता है । शायद इसिलिए क्षोभ करने वाले मनुष्य पर मेरा क्षोभ ।।
अलख आदेश ।।।

सिद्धि का अर्थ

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                             सिद्धि का अर्थ किसी भी प्रयास का फल है । चाहे वो एक नौकरी पेशा व्यक्ति का महीने के अंत में मिलने वाली तनख्वाह । या किसी साधक का साधना में सफलता । अलग अलग रूप हैं ।सांसारिक ने कहा धन की यथोचित समृद्धि । ज्ञानी ने कहा आत्म ज्ञान । साधक ने कहा इष्ट की प्राप्ति ।
                            जब मैंने अपने गुरुदेव से चर्चा की उन्होंने कहा सिद्धि कुछ नहीं है बस पड़ाव है किसी भी पथ पे चलने वाले पथिक का । सिद्धि किसी भी साधक को सही पथ पे चलने का मार्ग दर्शन है ।

धन की प्राप्ति : धन क्षणिक है सांसारिक भोग विलास के कार्य आने वाला एवं सुलभता हेतु एक मार्ग । आवश्यक पर परम आवश्यक नहीं ।

आत्म ज्ञान : स्वयं का ज्ञान सबको है । सभी को पता है कि मैं क्या कर सकता हूँ । क्या नहीं कर सकता वो बस भ्रम है । जो नहीं किया जा सका उसके कार्य में कुछ कमी है । अगर मैं शिवांश काली का पुत्र और काली पुत्र भैरव का प्रिय हूँ तो जिस रूप में माँ को प्रेम से बुलाऊंगा या जिस प्रकार माँ को पुजुंगा माँ स्वीकारेगी । यह आत्म विश्वास है दंभ नहीं । माँ के प्रति प्रेम है । जो खाऊंगा माँ को वही भोग लगाऊंगा । माँ वही ग्रहण करेगी । जो कार्य करूँगा माँ उस कार्य में सहयोग करेगी एवं हर संभव विधि से रक्षा करेगी ।

इष्ट की प्राप्ति : हर जीव में माँ का अंश है । माँ कोई भी रूप लेकर सामने आ जाएगी । किस विधि से सामने आएगी क्या बोलेगी क्या कराएगी सब उनकी माया है । किस रूप में आवाज देगी यह समझना साधक का कार्य है । जिस रूप में पूजें क्या वही रूप आएगा बात करने ? माँ को पूजा दस भुज रूप में माँ आई दो भुजी । सब माया है । परम तो बस शून्य है । शून्य का कोई रूप नहीं । रूप है तो फिर अनेक ।
                                    सिद्धि फलित तब जब परमेश्वर का अहसास हमेशा हो । काली पुत्र का संग हमेशा रहे । प्रेम से सरोबार जब क्रोध लोभ मोह के बंधन का अहसास ना हो । हर जीव माँ के रूप में मुस्कुराये ।
अलख आदेश ।।।

औघड़ वाणी:

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश

                              औघड़ वाणी: एक साधक का उद्देश्य अपने पात्र को पूर्ण रुपेन भरना होना चाहिए । जब पात्र पूर्णतः भर जाए तब दीक्षा या सहायता का उद्देश्य लोक कल्याण के लिए होना चाहिए । जब आपका घड़ा भर जाएगा तभी आप किसी और की प्यास तृप्त कर पाओगे । जब धन जरुरत से ज्यादा होगा तभी किसी की सहायता कर पाओगे ।
अन्यथा सामने वाला प्यासा रह जायेगा और असंतुष्ट रह जायेगा ।
अलख आदेश ।।।

मन अति सूक्ष्म अति चंचल और अति तीव्र है

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                                        मन अति सूक्ष्म अति चंचल और अति तीव्र है । इसको नियंत्रित करना उतना ही कठिन एवं जटिल है । मन को नियंत्रित करने का सफल उपाय किसी मछुआरे से सीखना होता है । एक मछुआरा भरे जलाशय में एक मजबूत धागे से अंकुश रुपी काँटा लगा कर फेंक देता है । जलाशय संसार है मन वो मीन जो इधर उधर भटकता रहता है । धागा संयम करने वाला साधन और अंकुश रुपी काँटा मन को संयमित करने का उपाय । मछुआरा आत्म ज्ञान ।
                                      जैसे एक मछुआरा अंकुश रुपी कांटे में कोई जीव लगा कर मीन को आकर्षित करता है । उसी प्रकार आत्म ज्ञान श्रद्धा को साधन बना मन को आकर्षित करता है ।आकर्षित मीन रुपी मन उस अंकुश रुपी कांटे में फस कर छटपटाता है । मछुआरा उसे उस समय नहीं खींचता अपितु मीन को फंसे रहने देता है । और धीरे धीरे अपनी और खींचता है । कभी भी तीव्र गति से नहीं खींचता है । अन्यथा मन रुपी मीन उस झटके में आहत हो उस अंकुश से घाव लेकर मुक्त हो जायेगा । जब मीन समीप हो तब उसे मछुआरा पकड़ कर एक छोटे से जल पात्र में डाल देता है । और वही जल पात्र उस मीन का संसार बन जाता है ।
 
इसी प्रक्रिया से मन को नियंत्रित किया जा सकता है।

श्रद्धा रुपी अंकुश से मन रुपी मीन को आकर्षित कर संयमता से मन को नियंत्रित कर एक साधक साधना में अग्रसर हो सकता है ।
अलख आदेश ।।।

तंत्र मन्त्र की सहायता

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

                             एक व्यक्ति के घर मे उसी के घर के किसी बाहरी सदस्य द्वारा कोई सामान चोरी हो जाने पर अगर वह घर में उसकी खोज किये बिना अगर तंत्र मन्त्र की सहायता लेने की सोचता है तो यह कार्य हास्यप्रद है ।परेशानी सभी के संग ही चलती है कोई उसे बड़ा रूप देता है कोई उसे भूल जाता है । पर आवश्यक है की मनुष्य अपने यथासंभव विधि से उस परेशानी का हल ढूंढे । अगर हल नहीं मिल रहा है तो किसी बुद्धिजीवी की सहायता ले । अंततः जब उसे कोई उपाय नहीं दिख रहा और अध्यात्मिक शक्तियों का सहारा लेना पड़ेगा तभी तंत्र की सहायता लेना उत्तम होता है ।
                        अन्यथा सही स्थान पर गए तो उत्तम अन्यथा नाम धारी तथाकथित महानुभाव अपने सोच और अपने जरुरत हेतु उस परेशान व्यक्ति से विधिवत कार्य कराते हैं ।आवश्यक नहीं है कि हर साधक के पास उस व्याधि का हल हो । अपने आप को सर्व ज्ञानी और सर्व शक्तिमान साबित करने की चाह में किसी की श्रद्धा से खेलना उसकी श्रद्धा का परिहास स्वयं भगवान् से है ।
                     इसी कारनवश आज सभी साधारण मनुष्य तंत्र और अघोर से भयभीत होते हैं । तथाकथित नाम धारी तांत्रिक और अघोर अपना ही नहीं पुरे पंथ और इष्ट का नाम भय और प्रपंच में शामिल कर देते हैं ।
एक स्त्री के का किसी मित्र से शारीरिक सम्बन्ध को दोष बता कर ऐसे प्रपंची स्वयं उससे सम्भोग कर उसे दोष मुक्त करने का प्रस्ताव रखते हैं । इसमें दोष बस उस नामधारी का ही नहीं अपितु उस मनुष्य का भी है जो अंध श्रद्धा में कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं । अगर किसी ने अनुचित उपाय बतया है तो आपका विवेक और ज्ञान क्या उस कार्य को करने की सहमती देता है?यही कारण है जब ऐसे लोग दूकान लगा कर बैठे हुए हैं । इसी भय और प्रपंच के आधार पर अपनी दूकान चलाते हैं ।
                           अगर एक व्यथित मनुष्य किसी परेशानी या व्यथा को लेकर किसी साधक के पास आता है अर्थात वो अपनी पूर्ण श्रद्धा समर्पण कर उस साधक को अत्युतम भगवत कृपा का पात्र समझ कर अपनी परेशानी को दूर कराना चाहता है । उस समय उस साधक की जिम्मेदारी है किसी की श्रधा का उपहास ना बनाये । जिस प्रकार एक शिष्य अगर गुरु को शिव स्वरुप मानता है तो गुरु को शिव अनुसार ही विचार और व्यवहार रखना चाहिए । अन्यथा में शिष्य को श्रद्धाहीन होने का दोष नहीं देना चाहिए । उसी प्रकार शिष्य अगर गुरु को मात्रि रूप और परम परमात्मा का साकार रूप से पूजन करे तो गुरु से किसी भी रूप में छल नहीं करना चाहिए ।
                          एक संत का उच्च विचार और क्रिया कलाप सभी संतों के प्रति प्रेम और आदर का जन्मदाता है उसी प्रकार एक कपटी संत का कार्य बाकी संतों के प्रति क्रोध घृणा एवं भय का कारण बन जाता है ।
अलख आदेश ।।।

औघड़ वाणी

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश

                                           औघड़ वाणी: हर व्यक्ति में देव मनुष्य एवं दानव तत्व विद्यमान रहते हैं । जब व्यक्ति ज्ञान की बात करे या अर्जित करे वह देव तत्व में रहता है । जब सांसारिक कार्यकलापों में लीन होता है तब मनुष्य तत्व में और जब विध्वंश या मलीन सोच से घिरा होता है तब वह दानव तत्व से पूर्ण होता है । अपने क्रिया कलापों को किस दिशा में मोड़ना है यह एक साधक का कार्य होता है । किस तत्व को सर्विपरी रख कर व्यवहार करना है इसका निर्धारण अति महत्वपूर्ण है । अगर देव या संत ना बन सको तो दानव भी मत बनने का प्रयास करो ।
अलख आदेश ।।।

धर्मान्तरण एक अभिशाप

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

                                  धर्मान्तरण एक ऐसा अभिशाप है जिसमे एक अभिशापित व्यक्ति दुसरे साधारण सनातन धर्म के साधारण मनुष्यों को अभिशापित करने को प्रेरित करता है । परी कथाओं के रक्त पिपाशु चरित्र (vampires) की तरह । अनेक प्रलोभन देकर अभिशापित कर दिया जाता है । और अभिशापित व्यक्ति उसी को सर्वोच्च मान कर रम कर दूसरों को भी उसी में रमने की सलाह देता है ।
                                 जो व्यक्ति वेश्यावृति को बुरा या गलत इसलिए कहते हैं कि कुछ सुख सुविधाओं के किसी ने अपने शरीर और इज्जत का सौदा किया । क्या धर्मान्तरण इससे ज्यादा बड़ा पाप नहीं की अपने नाम धर्म इज्जत पहचान को कुछ क्षणिक सुख सुविधाओं के लिए सदा के लिए तिलांजलि दे दी ।आश्चर्य तब होता है जब धर्मान्तरित व्यक्ति ना इधर का होता है ना ही उधर का हो पाता है । ना सनातन धर्म में वापस आ सकता है और जिन लोगों की वजह से उसने धर्म का सौदा किया नाही वो उसे पूर्ण रूप में स्वीकारते हैं ।

गुरु दीक्षा कोई संस्कार या कोई आयोजन नहीं

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                                      गुरु दीक्षा कोई संस्कार या कोई आयोजन नहीं होता । अपितु एक मनुष्य का पुनर्जन्म होता है । मनुष्य महामाया के गर्भ में तब तक सांसारिक विष्ठा और मूत्र का भोग लगाता रहता है जब तक वह उस गर्भ से बाहर ना आ जाये । संसार रुपी गर्भ में बंधन नाल का बंधन । गर्भ रुपी द्रव्य का मोह माया और आकर्षण रुपी सुविधाजनक आवरण होता है । जिसमें अजन्मे शिशु की आँखे बंद होती हैं । बंद आँखों से वह इस गर्भित संसार की कामना ही कर सकता है । आंकलन ही कर सकता है ।
                                           मात्रि रुपी श्रद्धा उस शिशु को धक्का देकर गर्भ से बाहर निकालने का प्रयास करती है । शिशु के बाहर निकलते ही एक नया संसार उसका स्वागत कर रहा होता है । शिशु के बाहर निकलते ही गुरु रुपी माँ उसे थाम कर अपने वक्ष स्थल से लगा ज्ञान का पान करा देते हैं ।और तब तक उसे मार्ग दर्शन देते हैं जब तक शिशु व्यसक ना हो जाये और स्वयं की संतान करने में सक्षम नहीं हो जाता । अवयस्क शिशु ना खुद को पाल सकता है ना ही अपनी संतान को । अतः मन्त्र दीक्षा के बाद भी कसौटी चलती रहती है । और गुरु साधक की क्षमता का आंकलन करते रहते हैं ।
                                        दीक्षा गुरु के इक्षानुसार और साधक की पात्रता के अनुसार होती है । साधक जब मन्त्र ग्रहण के लिए सक्षम होता है तब उसे मन्त्र दीक्षा मिल जाती है । जब साधना में आगे बढ़ने लगता है तब उसका नामकरण और नादी दीक्षा सम्पूर्ण कर दी जाती है ।पर मन्त्र ग्रहण और मन्त्र प्रदान करने का विधान होता है । मन्त्र के देव को जागृत कर साधक के शरीर में स्थापित करना होता है । मन्त्र सभा में बोलने से किस साधक के शरीर में कौन देवता जागे यह पता कर पाना कठिन होता है । अतः सभा में मन्त्र मिलना अनुयायी बनाने के सामान है । दीक्षा उपरांत शिष्य गुरु की संतान के सामान होते हैं । अगर शिष्य गुरु से समय ना ले पाए गया अर्जन ना कर पाए तो प्रेम के भाव में कमी होने से शिष्य भटक जाते हैं ।
                                कुछ लोग कहते हैं मैंने गुरु को प्रत्यक्ष रूप में देखा था । पर अगर गुरु को दर्शन देने का भान ही ना हो तो वो दर्शन किस काम का?
                              श्रद्धा से पूर्ण साधक को अपने इष्ट के दर्शन अनुभूति के रूप में होते रहते हैं । अतः हर दर्शन आवश्यक नहीं कि प्रत्यक्षीकरण हो । आवश्यक है कि इष्ट और श्रद्धेय को दर्शन का पता रहना चाहिए ।कुछ गुरु तुल्य कहते हैं मैं सारी दीक्षा कर्म को एक बार में ही सम्पूर्ण कर सकता हूँ । गुरु तो कर देंगे पर शिष्य की पात्रता उस कर्म को सहने लायक है या नहीं इस बात का पता गुरु को लगाना आवश्यक है । अन्यथा भटके हुए शिष्य गुरु को बुरा बताने में कोई कसर नही छोड़ते हैं ।
अलख आदेश ।।।

औघड़ वाणी

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


औघड़ वाणी: वीर साधक वो जो हर क्षण इष्ट की अनुभूति अपने आस पास करे । हर क्रिया कलाप में इष्ट का सन्देश पाए । पर किसी अप्राकृतिक अनुभूति पर नाचने ना लगे । और ना ही ढोल पीटे और गुणगान बिखेरे ।पशु भाव के साधक किसी भी अनुभूति का ध्यान नहीं रख पाते । जिससे सन्देश या आदेश मिलने पर उनको ज्ञात ही नहीं होता की आस पास कौन है । अन्यथा इष्ट कितने बार रूप बदल कर कुछ बता जाते हैं ।
अलख आदेश ।।।

अपने माता पिता की बुराईयाँ

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 
                                   जो व्यक्ति अपने माता पिता का ना हो पाए । उनकी बुराईयाँ करे ।धर्म का ना हो पाए । अपने धर्म को सबसे बुरा बताये ।गुरु के निर्देशों का पालन ना करे गुरु के प्रति अश्रद्धा रखे । गुरु से छल करे । उनसे झूठ बोले ।गुरु भाईयों से कपट करे । संतों में भेद करे |ऐसे व्यक्ति या स्त्री पागल सर्प के सामान होते हैं । उनको विश्वास का पात्र समझना विश्वास को हानि पहुचाने के समान है । ऐसे व्यक्तियों के स्वाभाव को समझने के उपरान्त यथा शीघ्र दूरी बनानी चाहिए । अन्यथा वह सर्प जो अपनों का ना हो पाया वो किसी और का कभी नहीं हो सकता है ।
                             कुछ स्त्रियाँ अपने परिवार को बुरा बता कर सुहानुभूति प्राप्त करना चाहती हैं । कुछ व्यक्ति अपने गुरु के क्रोध को सहज रूप में ना लेकर उन्हें ही बुरा बताते हैं । ऐसे व्यक्तियों से सम्बन्ध रखना सभी के लिए हानि कारक सिद्ध होता है ।
अलख आदेश ।।।

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दिखावट , आडम्बर , स्वः प्रतिष्ठा

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

                     दिखावट , आडम्बर , स्वः प्रतिष्ठा का भान भटकाव का एक स्वरुप है । जब साधक में स्वः प्रतिष्ठा का भान होने लगे । आस पास के मनुष्यों में स्वयं को श्रेष्ठ बताने का भाव जनित होने लगे । मैं सबसे बेहतर, सब मुझे बड़ा माने या सब मुझे गुरु रूप में पूजे का भाव भटकाव की सबसे बड़ी प्रविर्ती है ।
                      साधक अपनी सिद्धियों दूसरों को प्रभावित तो कर सकता है । पर सीद्धियों का स्थान और उपयोग बदल जाता है । इस बात का ज्ञान रखना आवश्यक है सिद्धि शक्ति अवश्य है पर एक पिता के गोद में बैठी बेटियों के सामान । पिता अपनी पुत्रियों को जिस प्रकार प्रेम और सौहार्द्य से रखता है सिद्धियों का रख रखाव वैसा ही होना चाहिए । किसी अनर्गल कार्य में कभी उनका सहयोग नहीं लेना चाहिए । अन्यथा ऐसा प्रतीत होगा की पुत्रियों के सुन्दरता और लक्षण पर पिता समाज में प्रतिष्ठा पाने की लालसा करे ।
                       सिद्धियों को अघोर साधक अपनी झोली में स्थान देकर या मुंड में स्थान देकर उनके होने पर भी ना होने का भान रखते हैं । अन्यथा सिद्धियाँ जिस प्रकार आई हैं उसी प्रकार जाने का भी मार्ग खोजती हैं । अगर सिद्धियों का स्थान बदल कर उनको मस्तिस्क पे स्थान दिया जाए तो वो साधक को अहम में भर देती हैं और किसी भी ऐसे कार्य का नियोजन कर चली जाती हैं ।
                 ऐसे में साधक बस एक खोखला तना हो जाता है । जिसे एक छोटी आंधी भी उखाड़ कर फेंक देती है ।सिद्धियाँ पथिक के राह की उपलब्धियां हैं । जिनको गंतव्य कभी नहीं समझना चाहिए ।जितना प्रयास हो सके आडम्बर और स्वः प्रतिष्ठा से दूर रहना चाहिए । सामाजिक प्रतिष्ठा का कोई मान नहीं होता । सांसारिक किसी भी साधक के संग तभी तक रहते या सम्मान करते हैं जब तक उनका कार्य निर्विघ्न रूप से सम्पूर्ण नहीं होता । सांसारिक धन संपत्ति का कोई मुल्य नहीं होता । उनका कोई अस्तित्व नहीं होता । ना ही किसी के अपने होते हैं । जो एक रुपया आज किसी व्यक्ति के पास है वो दुसरे व्यक्ति के पास जाकर उसका हो जाता है । जब कोई अपना है ही नहीं तो उसे पाने की लालसा में दिखावा या आडम्बर क्यों?पाना है तो उस भक्ति , श्रद्धा और प्रेम को पाओ जो आजीवन आपके संग चलेगा आपकी रक्षा करेगा । भटकाव से बचाएगा ।
अलख आदेश ।।।

औघड़ वाणी

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

                             औघड़ वाणी: मनुष्य सहस्त्र साहित्य का अध्ययन कर ले । सहस्त्र मन्त्रों का जाप कर ले । जब तक गुरु कृपा नहीं होती साधना और इष्ट सानिध्य का व्यवहारिक ज्ञान होना कठिन होता है ।जिस प्रकार एक धुले हुए वस्त्र को बंद कमरे में सुखाने का प्रयास करो । या बिना सूर्य के ताप में बाहर सुखाने का प्रयास करो । वस्त्र पूर्ण रुपेन नहीं सूखता और दुर्गन्ध रह ही जाती है ।उसी प्रकार जब तक गुरु ताप या संतों के उर्जा का भान ना हो तब तक साधना अधूरी ही रह जाती है ।
अलख आदेश ।।।

औघड़ वाणी

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

अघोर भीख भी मांगते हैं गाली देकर ।
जो मिलेगा वो इष्ट का प्रसाद है जो नहीं मिलेगा वो इष्ट की इक्षा है । जब इष्ट साथ हैं तो किसी का कोई भय नहीं । शान से जियेंगे । ना किसी की चमचागिरी करेंगे ना ही करवाएंगे ।
मस्त मलंग हैं, माँ के संग है महादेव के संग है ।
किसी का अहसान नहीं लेंगे । जो लेंगे वो माँ का प्रसाद है । माँ का प्रसाद शिशु अधिकार से ग्रहण करता है ।
अलख आदेश ।।।

अघोर प्रेम की व्याख्या

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश
                            अघोर प्रेम की व्याख्या आँखों से होती है । कर्म और वाणी की व्याख्या तो बंधन युक्त होती है । कर्म और वाणी दिखावट पूर्ण है । पर आँखों से व्यक्त प्रेम को इष्ट और गुरु ही समझ सकते हैं ।चमकती हुई आँखें । अश्रु पूर्ण दृष्टि प्रेम की गहनता को दर्शाती है ।वाणी और कर्म प्रधान व्याख्या में रिझाने का कार्य सर्वोपरि होता है । दर्शाने की भावना महत्वपूर्ण होती है । कभी एक दर्शन भी गुरु को शिष्य के ह्रदय में उठी हुई भावना को सम्पूर्ण रूप से व्यक्त कर जाती है । और कभी सम्पूर्ण श्लोकों का पाठ भी भाव को व्यक्त नहीं कर पाती ।आँखें तो ह्रदय की वाणी कहती हैं ।
अलख आदेश ।।।

अघोर साधक

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

                                  अघोर साधक ना ही सम्मान की इक्षा रखते हैं और ना ही अपमान के भय से व्यथित होते हैं । ना किसी से मोह का बंधन ना उनके जाने का दुःख ।मंदिर में घंटा आने वाले भी बजाते हैं और जाने वाले भी । आते समय बजाओ या जाते समय मंदिर में बैठे देव को क्या फर्क पड़ता है ?कृपा दृष्टि तो हर समय है अन्यथा कभी नहीं है । कुछ साधक कहते हैं मैं गुरु जी के इतने निकट हूँ । मैंने गुरूजी के लिए इतना कुछ किया है । मैंने इतनी सेवा की है । मैंने उनकी सहूलियत के लिए इतना दान किया है ।
                               पर क्या अघोर को आपने बिना स्वार्थ के प्रेम किया है ? क्या बिना इक्षा के सामने बैठ कोई कार्य किया है ? कई लोग कहेंगे मैंने किया है । पर क्या मनसा – वाचा – कर्म से बिना स्वार्थ के किया ?अगर किया है तो आपको मिला है । अन्यथा स्वार्थ पूर्ण क्रिया कलाप में जो मिला उसी में संतोष करो ।
                             कुछ साधक अपने समझ से प्राप्त ज्ञान को सर्वोपरि मान उसी में लिप्त होकर दूसरों को सही गलत बताने लगते हैं । बस अपने ज्ञान को ठोस कवच में बंद करके उसके आगे का कोई ज्ञान नहीं लेना चाहते । ज्ञान प्राप्ति के बाद भी ग्रहण मुद्रा में बैठ कर सुनना और समझना सही अघोर साधक का कर्त्तव्य है ।अपने ज्ञान को सर्वोपरि मानने वाले साधक “अधभर गगरी छलकत जाए” का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । गुरु भी उनकी परीक्षा लेने में कोई कसर नहीं छोड़ते । हर क्षण एक परीक्षा होती है । हर संवाद में परीक्षा का संयोजन है ।
                       किसी शिष्य के वचन जिसमे गुरु उनसे अत्यधिक प्रेम करते हैं और उनके बिना कुछ नहीं करेंगे ऐसा उनकी अज्ञानता को दर्शाता है । प्रिय से प्रिय शिष्य की परीक्षा उतनी ही कठिन होती है । और अघोर तो चले अकेला । ना किसी शिष्य के प्रेम का बंधन उसे बांध सकता है ना ही कोई शिष्य उन्हें मोहित कर सकता है ।
अलख आदेश ।।।

अघोर पंथ

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश
                               अघोर पंथ दुष्कर मार्ग है । इस दुर्गम और कष्टदायी मार्ग पे चलने वाले साधक हर क्षण इष्ट के भाव में रहते हैं और हर क्षण किसी ना किसी प्रयोग का दुष्प्रभाव सहन कर रहे होते हैं । अगर आप अघोर साधनाए कर रहे हो और कोई दूसरा साधक आपको देखता है तो आपसे प्रत्यक्ष वार्ता ना करे तो अपनी शक्तियों के माध्यम से आपके बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहेगा । आपकी शक्तियों का अवलोकन करना चाहेगा । ऐसे में नए साधको के पास गुरु रुपी रक्षा कवच ना हो तो कई परेशानियां सामने आ जाती हैं ।अघोर साधनाओं के गुप्त होने का यह भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा है । इष्ट के भाव में रमे हुए साधक अपनी मर्जी से कार्य करते हैं । इसीलिए सामान्य सांसारिक उन्हें पागल या विछिप्त भी मान लेते हैं ।
अलख आदेश ।।।

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अलख आदेश

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

जितना दोगे उतना ही वापस पाओगे
ना ज्यादा ना कम करूँगा
दोस्ती में हाथ बढाओगे तो हाथ ही बढ़ाऊंगा
सर नहीं झुकाऊंगा
इज्जत दोगे प्रेम से इज्जत ही दूंगा
सर पे नहीं चढाऊंगा
ना एक रुपया कम ना एक रुपया ज्यादा लूँगा
ना ही कभी दूंगा
नाथ हूँ औकात में बात करोगे
औकात ही दिखाऊंगा ।।।
अलख आदेश ।।।

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अघोर पंथ

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 


                               अघोर पंथ की वास्तविकता से परिचय कराना गुरु का कार्य है । गुरु हर संभव जटिलताओं से साधक का परिचय कराते हैं । नए साधकों के प्रश्न जिसमे मैं अघोर मार्ग के कठिन स्वरुप को भयभीत करने के उद्देश्य से लिख रहा हूँ ऐसा कतई नहीं है । मैं तो गुरु आज्ञा से अघोर पंथ के वास्तविक रूप को सभी के सामने रख रहा हूँ । इससे भयभीत होना या प्रसन्न होना आपका दायित्व है ।
आपकी इक्षा पर पुर्णतः निर्भर करता है । अघोर सहज है और मनुष्य जीवन काल को समाप्त करता हुआ जटिलता की और बढ़ता रहता है । जटिलता से वापस सहजता की ओर अग्रसर होना अत्यधिक कठिन है ।अघोर में भय का कोई स्थान नहीं है । अगर भयभीत हुए तो कुछ समय की और प्रतीक्षा कर लें । अक्सर देखा गया है । अभी कुछ देखा या सुना या पढ़ा मन लालायित हो जाता है उस कार्य को करने के लिए । ऐसा अघोर पंथ में प्रवेश हेतु कतई ना करें । पढ़ते रहें समझते रहें एवं अघोर को जानते रहें । जब स्वः गुरु आत्मा का आदेश हो जाये कि अघोर पूर्णतः आपके लिए ही है तब प्रवेश लें या अघोर साधनाओं की ओर अग्रसर हों ।
अलख आदेश ।।।

अघोरी और अघोर साधक

                              ॐ सत नमो आदेश श्री नाथजी गुरूजी को आदेश आदेश आदेश 

अघोरी और अघोर साधक:

                                 अघोर का अर्थ तो स्वयं महाकाल श्री अघोरेश्वर अलख पुरुष शिव शम्भो महारुद्र हैं । जिन्हें श्मशान सबसे अधिक प्रिय है । जो सत्यता का सर्वोपरि उदहारण है । सत्य में निवास करते महादेव । मोह माया के घोर से घोर रूप में मनुष्य में समाहित फिर भी अघोर प्रेम होकर भी बंधन नहीं । सबसे मुक्त ।
उन्ही के आचरण को समाहित करते साधक अघोर पंथ के साधक होते हैं । 

अघोर पंथ के मुख्य चरण होते हैं
                              अनुयायी – साधक – औघड़ – अघोरी – परम हंस ।।।

                                अनुयायी ऐसा साधक है जो वीर मार्गी साधना में अग्रसर हो अघोर को समझ कर भय मुक्त प्रेम करे । घृणा मुक्त कार्य करे । अघोरेश्वर महादेव में लीन होने का प्रयास करे । अक्सर जन्म जन्मान्तर के साधना क्रम को समाहित कर अघोर पंथ की ओर अग्रसर होता है । साधक के भाव लक्षण और झुकाव मार्ग को प्रशस्त करते हुए गुरु के समक्ष खड़ा कर देते हैं ।
                           साधक के भाव को समझ जब गुरु उसे दीक्षा देते हैं । उसका पुनर्जन्म होता है । ज्ञान चक्षु खोल गुरु उसे संसार एवं संसार में ही उपस्थित दुसरे संसार को दिखाते हैं । साधना देते हैं । तब अनुयायी साधक के रूप में जन्म लेता है । गुरु द्वारा प्रदत्त साधनाओ को करता हुआ बिना किसी इक्षा के बिना किसी मांग के बस साधना करता रहे । उसे अघोर साधक कहते हैं । साधक उस समय ग्रहण मुद्रा में रहता है । गुरु से संसार से गुरु भाइयों से गुरु तुल्य वरिष्ठ साधकों से ग्रहण करता रहे । अनुभूतियाँ और शक्तियों को अर्जित करता रहे । भटकाव की संभावना इस चरण में सबसे ज्यादा होती है । साधक अपने आप को औघड़ या अघोरी साबित करने लग जाते हैं । ज्ञान और शक्ति का घड़ा भरा नहीं और लगे सबको बांटने । शक्तियां भी जिस प्रकार आती हैं उसी प्रकार जाने का भी मार्ग खोजती हैं । शक्तियों का अनुभव हुआ और संसार में शक्तियों के द्वारा अपनी प्रसिद्धि पाने की लालसा में प्रयोग और दिखावा शुरू कर दिया । मेरा नाम लेकर ना पुकारो । इज्जत दो मुझे । तुमने मेरे लिए कुछ क्यों नहीं किया । द्वेष के भाव । मैं तो अघोरी हूँ यह बर्बाद कर दूंगा । ऐसा नहीं किया तो वो कर दूंगा । वो नहीं किया तो बर्बाद कर दूंगा । ऐसे में इष्ट तो बैठा मुस्कुराए की आप भटके । उसने तो दोनों रस्ते दिखाए । पर संसार में उपाधि और उपयोगिता के लोभ में तो साधक भागे भटकाव की तरफ । संयम और इक्षाशक्ति के बल पर साधक आगे बढ़ सकता है ।
                              साधक के उपरान्त औघड़ की स्थिति आती है जब इष्ट के दर्शन हो जाएँ । साधक फिर अति उग्र साधनाओं की तरफ गुरु आज्ञा से अग्रसर हो जाए । क्रोध से भरा हुआ पर अति सौम्य । साधना और गुरु के समक्ष किसी का कोई औचित्य नहीं । भय घृणा द्वेष और मोह का नामोनिशान नहीं । जब पूर्णता की ओर अग्रसर । ऐसी अवस्था जब ग्रहण मुद्रा में भी हो और दाता के भाव भी । ना ही मसान की शक्तियों का भय ना ही किसी और का ।
                              दहाड़ता हुआ हुंकार भरता हुआ, मस्त मौला अपने राह पर अग्रसर । शक्तियों के भण्डार को सम्हालता हुआ औघड़ । ना किसी से सम्मान की इक्षा ना अपमान करने का भय । करो तो अपने लिए ना करो तो भी अपने लिए । हर कार्य में इष्ट की इक्षा । नाम लेकर पुकारो या बाबा या नाथ जी । कोई फर्क नहीं । बस भाव का संबोधन सर्वोच्च । क्रोध में आकाश और धरती को चक्की बना दे प्रेम में गंगा घुमा दे ।
                            पूर्णता को समेटे भरे हुए ज्ञान पात्र को समेटे । सिद्धियों को पुत्री जैसा सम्मान देकर अघोरी की सांसारिक रूप में पूर्ण अवस्था को प्राप्त करे अघोरी । शांत सौम्य अति प्रेम की परिभाषा को जग में दर्शाते हुए अघोर पंथ का सांसारिक अंतिम लक्ष्य । जब ना मोह है ना बंधन । अघोरेश्वर के समक्ष बैठा अघोर साधक । भूत भविष्य वर्तमान का ज्ञान रखने वाला साधक । विधी के विधान को प्रेम पूर्वक सम्मान करता हुआ पूर्ण साधक । भक्तों एवं साधकों के समक्ष ढाल की तरह खड़ा गुरु । ना संसार में रहने का मोह ना ही सांसारिक उपाधियों से संयुक्त होने की चाह ।
                      अघोरी नामधारी तो कई मिल जायेंगे पर अघोरी वास्तविकता में कौन यह तो अघोरेश्वर ही जाने । नाम लिख लेने से अघोरी हो जाए तो मैं अघोरेश्वर रख लूं अपना नाम । पर सत्यता तो यही रहेगी की चूहे का नामकरण गजराज हो गया ।अपने आशीर्वाद भर से भक्त का सम्पूर्ण कल्याण करते अघोरी । अघोरत्व की पूर्णता समेटे अघोरी संसार में कुछ समय के लिए ही निवास करते हैं ।
                     अघोर पंथ की परम अवस्था है परम हंस । जब अघोरी को ना भूख प्यास लगे । परम से इकाकार हो जाए । शून्य में समाहित हो जाए । सूक्ष्म शरीरों के माध्यम से भक्तों के निकट रहे । शिष्यों का कल्याण करें । तब संसार को त्याग कर अघोरी एकांत वास शून्य में सशरीर समाहित हो जाते हैं । अघोर साधक या तो साधना में मरते हैं या फिर कभी नहीं । पूर्णता में सम्पूर्ण समाहित अघोर साधक संसार से विलीन हो जाते हैं । ऐसे में कई गुरु तत्व रुपी सूक्ष्म रूप शरीर धारी गुरु तत्व संसार में हैं । जिनका चिंतन और मनन एवं सधना उनकी कृपा का पात्र बनाती है ।
अलख आदेश ।।।